जब-जब कुश्ती का ज़िक्र होता है तब-तब ‘द ग्रेट गामा’ को याद किया जाता है.
गामा पहलवान के नाम से मशहूर गुलाम मोहम्मद इकलौते ऐसे शख्स थे, जिन्होंने अपने जीवन में एक भी कुश्ती नहीं हारी. गामा पहलवान ने भारत का नाम पूरी दुनिया में रौशन किया तभी तो कुश्ती की दुनिया में गामा पहलवान की मिसाल दी जाती रही है.
भारतीय कुश्ती कला को दुनिया भर में मशहूर बनाने का सारा श्रेय सिर्फ गामा पहलवान को ही जाता है, फिर क्यों इस पहलवान को अपने जिंदगी के आखिरी दौर को मुफलिसी में गुज़ारना पड़ा.
‘द ग्रेट गामा’ ने अपने जीवन में कभी हार नहीं मानी, आखिर उसकी ज़िंदगी कैसे मुफलिसी के आगे बेबस हो गई.
आइए जानते हैं गामा पहलवान की ज़िंदगी से जुड़े कुछ खास पहलुओं पर.
द ग्रेट गामा
– गामा पहलवान ऊर्फ गुलाम मोहम्मद का जन्म सन 1880 में पंजाब के अमृतसर में हुआ था.
– गामा पहलवान करीब 80 किलो के वजनवाले पत्थर को गले में बांधकर उठक बैठक करते थे.
– डंबल के रुप में भी वो भारी वजनवाले पत्थर का उपयोग करते थे.
– गामा एक बार में एक हजार से अधिक दंड बैठक लगाते थे, जिसकी संख्या कई बार पांच हज़ार तक पहुंच जाती थी.
रग-रग में समाई थी कुश्ती
– गामा पहलवान के रग-रग में कुश्ती का खेल समाया हुआ था. दस साल की उम्र में ही उन्होंने कुश्ती से लोगों के दिलों में जगह बना ली.
– दस साल की उम्र में गामा ने जोधपुर – राजस्थान में देश भर से आए कई पहलवानों के बीच शारीरिक कसरत के प्रदर्शन में भाग लिया था.
कुश्ती ने बनाया विश्व विजेता
– गामा पहलवान ने दुनिया के कई देशों में अपनी कुश्ती की कला को दिखाया लेकिन लंदन में उन्हें उनकी असली पहचान मिली. लंदन पहुंचते ही उन्होंने वहां के दिग्गजों के सामने चौंकाने वाली चुनौती पेश कर दी.
– गामा ने उस समय के दिग्गज जैविस्को और फ्रेंक गॉच को ललकारा और उन्हें 9 मिनट 30 सेकंड के अंदर ही चित्त कर दिया.
– पूरी दुनिया में गामा पहलवान को कोई हरा नहीं सका, इसीलिए उन्हें वर्ल्ड चैम्पियन का खिताब मिला था. गामा ने अपने जीवन में देश के साथ विदेशों के 50 नामी पहलवानों से कुश्ती लड़ी और सभी जीतीं.
– गामा ने ‘शेर-ए-पंजाब’, ‘रुस्तम-ए-ज़मां’ (विश्व केसरी) और ‘द ग्रेट गामा’ जैसी उपलब्धियां हांसिल की.
– 15 अक्टूबर 1910 में गामा को विश्व हैवीवेट चैंपियनशिप में विजेता घोषित किया गया.
मुफलिसी के आगे हार गई ज़िंदगी
सन 1947 में भारत की आज़ादी के बाद जब पाकिस्तान बना तो गामा पाकिस्तान चले गये.
गामा के जीवन का आखिरी दौर बहुत दयनीय और मुफलिसी से भरा हुआ था. रावी नदी के किनारे गामा को एक छोटी-सी झोपड़ी बनाकर रहना पड़ा. गामा काफी बीमार रहने लगे और अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव में आकर गुज़ारा करने के लिए उन्हें अपने यादगार सोने और चांदी के मेडल्स तक बेचने पड़े.
आखिरकार मुफलिसी के आगे गामा की ज़िंदगी हार गई और 22 मई 1960 को पाकिस्तान के लाहौर में ‘रुस्तम-ए-ज़मां’ गामा इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गए और अगर कुछ छोड़ गए तो सिर्फ अपनी यादें.
जिस गामा पहलवान ने हमेशा भारत का सिर गर्व से पूरी दुनिया में ऊंचा किया उसका इस तरह से मुफलिसी के आगे बेबस होकर दम तोड़ देना, हमें शर्मशार करने के लिए काफी है.
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