मैं नारीवादी हूँ! यानि की फेमिनिस्ट!
यह आज की तारीख़ में जैसे कोई प्रचलित नारा बन गया है!
या फिर कोई ज़ोर पकड़ता फैशन|
जिसे देखिये, ख़ासकर देश के महिलावर्ग के सदस्यों को, हाथ में झंडा उठाये महिलामुक्ति मोर्चा निकाल रहा है!
हम जानते हैं कि इस प्रकार के आंदोलन और जागरूकता की हमारे देश में बहुत ज़रुरत है, लेकिन क्या सच में इस तरह का आक्रामक रवैय्या किसी भी प्रकार का समाधान निकाल पायेगा?
क्या ये नारीवादी होने का दावा कर के दूसरी स्त्रियों को दिशा-भ्रमित करना और उन का शोषण करने जैसा नहीं है?
क्या ये ज़रूरी है कि देश की हर स्त्री अपने पती से तंग है और अपने परिवार से निजात पाना चाहती है?
क्या ये ज़रूरी है कि देश की हर स्त्री समाज की सताई हुई है?
ये भी तो हो सकता है कि इस प्रकार के आंदोलन अच्छे ख़ासे परिवार में रची बसी महिलाओं को दिशा-भ्रमित कर दें, उन्हें विनाश के लिए उकसाएँ? क्या यह मानसिक शोषण नहीं है?
महिलाएँ, जो की नारीवादी या फेमिनिस्ट होने का दावा करती हैं, वे या तो समाज में पुरूषों को हीन भावना से देख रही हैं, या फिर अपनेआप को इंसानों की श्रेणी से ही ऊपर पाती हैं! उन के बातचीत के तरीके और हावभाव से यह कतई ज़ाहिर नहीं होता कि वे समाज में बराबरी का दर्जा पाना चाहती हैं, बल्कि ऐसा लगता है जैसे वे पुरुषों को समाज से मिटा ही डालना चाहती हैं! अब ये कहाँ की बराबरी हुई?
हाल ही में प्रचलित हुए अभिनेत्री दीपिका पादुकोण के वीडियो “माय चॉइस” ने अच्छा ख़ासा शोर उत्पन्न किया| किन्तु उस पूरे वीडियो में जो सब से आपत्तिजनक बात सामने आई वो यह थी की एक स्त्री अपने शादीशुदा जीवन से उक्ता कर किसी पर-पुरुष से सेक्स करने को “माय चॉइस” का दर्जा देती है!
क्या यह सही है?
क्या यह सही मार्गदर्शन है हमारी आज की युवा पीढ़ी के लिए?
क्या इस बात से यह तथाकथित नारीवादी सोच, समाज का, और स्त्रियों का मानसिक शोषण नहीं कर रही है?
ऐसी कट्टर नारीवादी स्त्रियाँ ही सब से पहली इंसान होती हैं सूट सलवार पहने किसी साधारण लड़की को “बहनजी” का दर्जा दे देने वाली! क्या यह निर्णात्मक रवैय्या साधारण स्त्रियों (जो की हमारे समाज का एक बड़ा प्रतिशत हैं) के व्यक्तित्व का शोषण नहीं है?
और तो और ख़ुद को समाज में फेमिनिस्ट कहलवा कर और पेज3 पर सोशल वर्कर की तरह अपनी फोटो छपवाने वाली महिलाएँ अपने घरों में नौकरानी का जी भर कर शोषण कर रही होती हैं! ऐसे कई जीते जागते उदाहरण मौजूद हैं, जो अपवाद नहीं, सामान्य हैं|
मेरे विचार से समाज में बदलाव आएगा स्त्रियों के लिए बराबर शिक्षा अधिकारों से, स्त्रियों के लिए सम्पूर्ण और बराबरी के रोज़गार अधिकारों से ! ना कि उन्हें दिशा-भ्रमित कर यहाँ-वहाँ सेक्स करने के लिए उकसाने से!
इस बदलाव और सशक्तिकरण को लाने के लिए ज़रुरत है, गाँव कस्बों में बालिका शिक्षा अभियान की और नारी रोज़गार योजनाओं की! किसी मल्टीनेशनल कंपनी के वीडियो विज्ञापन की नहीं जो वहाँ पहुँच ही नहीं पा रहा जहाँ सशक्तिकरण की सब से ज़्यादा ज़रुरत है|
हम सशक्त होते हैं जब हम अपने लिए प्रेम और सम्मान चुनते हैं| किसी को हीन कह कर या किसी को बहका कर उस का शोषण कर के हम कभी सशक्त नहीं हो सकते|
आज की नारीवादी कौम को शायद यह बात समझने की बहुत ज़्यादा आवश्यकता है|
इस बारे में अपने विचार हमें अवश्य बताईये|
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