मंदिर को हिन्दूओं की आस्था का केंद्र माना जाता है.
कहा जाता है की मंदिर में भगवान् रहते हैं. लेकिन शाश्त्रों में लिखा हैं कि भगवान सृष्टी के हर कण में रहते हैं.
फिर क्या वजह थी की प्राचीन काल से मंदिरों का निर्माण लगातार किया जाता रहा है?
मंदिर बनवाने के पीछे हिन्दुओं की मनसा क्या रही होगी?
मंदिर में मूर्ति रखकर पूजा करने के पीछे उद्देश्य क्या रहा होगा?
वास्तव में देखा जाये तो मंदिर एक मात्र ऐसी जगह है जिसमें हिन्दू धर्म में आने वाली हर जाति, वर्ग और सम्प्रदाय के लोग अपने मन विश्वास और आस्था से जुड़े रहते हैं अर्थात मंदिर एक मात्र ऐसा स्थान है जहाँ सारे हिन्दुओं की आस्था शुरु और खत्म होती है अर्थात मंदिर हिन्दू एकता का प्रतिक है.
उस समय मंदिर ही हिन्दूओं की एकता को केन्द्रित करने का एक मुख्या जरिया या साधन था.
मंदिर का निर्माण हिन्दुओं को एक करने के लिए किया गया और मंदिर में दान और चढ़ावा का प्रावधान अप्राकृतिक विपदा और समस्याओं के निपटने के लिए किया गया.
यह कार्य एक अच्छी सोच के साथ शुरु किया गया लेकिन बाद में जैसे जैसे धन बढ़ने लगा मंदिर से जुड़े लोगो का लालच बढ़ने लगा और फिर बाद में धन और चढ़ावे को धर्म और पाप पुन्य से जोड़ कर इंसानों के मन में भय भरना शुरू कर दिया जाने लगा.
पहले समय में मंदिर में जो चढ़ावा और दान आता था उसको अकाल, भूकम्प या सुखा पड़ने पर पूरे गाँव के लोगो की मदद के लिए प्रयोग किया जाता था.
परन्तु वर्तमान में मंदिर में आने वाले चढ़ावे का कोई मतलब नहीं.
वर्तमान में मंदिर में चढ़ावा सिर्फ मंदिर व्यापार चलाने वालों की संपत्ति में वृद्धि करना मात्र है.
पहले मंदिर का पैसा पूरे गाँव की संपत्ति हुआ करती थी. वर्तमान में यह एक संपत्ति शासन की या पुजारियों की या मंदिर के ट्रस्टी की है, जिसका उपयोग ये लोग मनमाने ढंग से करने लगे हैं.
मंदिर में संपत्ति वृद्धि के लिए खाने के स्टॉल और सामानों की दुकानें लगा दी गई है, जहाँ मिलनेवाले एक फूल से लेकर खाने तक बाहर से बहुत ज्यादा महंगे होते हैं.
धर्म के इन व्यापारियों ने लोगों की आस्था को सामग्री के साथ जोड़ दिया है. लोगों को लगता है कि बिना पूजा की सामग्री और चढ़ावे के बिना उनकी पूजा अधूरी होती है, सफल नहीं होती. लोगों को यह भी लगता है कि बिना मंत्र और पंडित के पूजा का फल नहीं मिलेगा.
और… बिना दान के कर्ज चढ़ेगा.
वर्तमान का इंसान धर्म व्यापारियों की बनाई आस्था जाल में ऐसे उलझा है कि सबकुछ जानते हुए भी अनजान बना हुआ है.
आज हमारे शिक्षित और सभ्य समाज का आस्था के नाम पर दान देना दर्शाता है कि हम शिक्षित होकर भी अशिक्षित और अन्धविशवासी ही हैं .
इसलिए, किसीभी मंदिर में आस्था के नाम पर दान देने से पहले ये सोचना जरूरी हो गया है कि आपके दान का सही उपयोग हो रहा है या नहीं.
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