भगवान शिव की जटाओं से पतित पावनी गंगा की निर्मल धार बहती है. वो अपने मस्तक पर उस चंद्रमा को धारण करते हैं जिसकी रोशनी रात के अंधेरे में अपनी चांदनी के साथ-साथ शीतलता बिखेरती है.
भगवान शिव अपने मस्तक पर चंद्रमा धारण करते हैं इसलिए उन्हें शशिधर भी कहा जाता है. लेकिन यहां सवाल यह है कि आखिर भगवान शिव को अपने मस्तक पर चंद्रमा को धारण क्यों करना पड़ा. तो चलिए हम आपको बताते हैं इससे जुड़ी दो पौराणिक कथाएं.
शीतलता के लिए शिव ने किया था चंद्र को धारण
शिव पुराण में वर्णित पहली पौराणिक कथा के अनुसार जब समुद्र मंथन किया गया था तब उसमें से हलाहल निकला था और पूरी सृष्टि की रक्षा के लिए स्वयं भगवान शिव ने समुद्र मंथन से निकले उस विष को पी लिया था.
विष पीने के बाद भगवान शिव का शरीर विष के प्रभाव के कारण अत्यधिक गर्म होन लगा. जबकि चंद्रमा शीतलता प्रदान करता है और विष पीने के बाद शिवजी के शरीर को शीतलता मिले इसके लिए उन्होंने चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण कर लिया. बस तभी से चंद्रमा भगवान शिव के मस्तक पर विराजमान होकर पूरी सृष्टि को अपनी शीतलता प्रदान कर रहे हैं.
शिव ने दिया था चंद्रमा को पुनर्जीवन का वरदान
दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार चंद्र का विवाह प्रजापति दक्ष की 27 नक्षत्र कन्याओं के साथ हुआ था. लेकिन इन सभी कन्याओं में चंद्र को रोहिणी नाम की दक्ष कन्या से अधिक प्रेम था. जिसकी वजह से नाराज होकर बाकी सभी कन्याओं ने इसकी शिकायत दक्ष से कर दी.
दक्ष ने क्रोध में आकर चंद्रमा को क्षय होने का श्राप दे दिया. इस श्राप के कारण चंद्र क्षय रोग से ग्रसित होने लगे और उनकी कलाएं क्षीण होने लगी. जिसके बाद दक्ष के इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए चंद्रदेव ने भगवान शिव की तपस्या की.
चंद्रमा की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी ने ना सिर्फ चंद्रमा के प्राणों की रक्षा की बल्कि उन्हें अपने मस्तक पर स्थान कर दिया. मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि जब चंद्र अपनी अंतिम सांसें गिन रहे थे. तब भगवान शिव ने प्रदोषकाल में उन्हें पुनर्जीवन का वरदान देकर उन्हें अपने मस्तक पर धारण कर लिया. जिसके बाद मृत्युतुल्य होते हुए भी चंद्र मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए.
भगवान शिव के वरदान के बाद चंद्र धीरे-धीरे फिर से स्वस्थ होने लगे और पूर्णिमा पर पूर्ण चंद्र के रुप में प्रकट हुए. जहां चंद्रमा ने भगवान शिव की तपस्या की थी वह स्थान सोमनाथ कहलाता है.
बहरहाल मान्यताओं के अनुसार आज भी दक्ष के उस श्राप के चलते ही चंद्रमा का आकार घटता और बढ़ता रहता है लेकिन आज भी पूर्णिमा के दिन चंंद्रमा अपने पूर्ण आकार में नजर आते हैं.
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