हिन्दू धर्म में महाभारत काल एक ऐसा काल था, जिसमे कई महान और बलशाली योद्धाओं ने जन्म लिया.
अपने पराक्रम से अर्जुन, भीम, कर्ण, अभिमन्यु जैसे कई योद्धाओं ने तो ख्याति प्राप्त कर ली लेकिन इस काल में एक ऐसा भी योद्धा हुआ जिसने बिना गुरु के हर विद्या अर्जित की और इन सभी योद्धाओं की योग्यता को अकेले ही चुनौती दी.
उस काल में प्रयाग जिसे आज इलाहाबाद के नाम से जाना जाता हैं, के तटवर्ती क्षेत्र में निषादराज हिरण्य धनु का श्रृंगवेरपुर नाम का राज्य था.
महाभारत काल में इस राज्य की शक्ति मगध, हस्तिनापुर, मथुरा और चन्देरी जैसे बड़े राज्यों के बराबर थी. निषादराज अपनी पत्नी रानी सुलेखा के साथ अपनी प्रजा का अच्छी तरह पालन-पोषण करता था. निषादराज और सुलेखा का एक पुत्र भी था “अभिघुम्न” जिसे लोग अभय भी कहते थे.
निषादराज और सुलेखा के पुत्र अभय को बचपन से ही अस्त्र-शस्त्र से जुडी विद्या के प्रति लगन और एकनिष्ठा को देख कर अभय के गुरुओं ने उसे “एकलव्य” का नाम दिया था. एकलव्य ने बचपन में जो शिक्षा प्राप्त की थी वह उसमे निपूर्ण था किन्तु वह धनुर्विद्या में उच्च शिक्षा लेना चाहता था. उस वक़्त उच्च शिक्षा के लिए गुरुद्रोण सर्वश्रेष्ट गुरु माने जाते थे और एकलव्य उन्ही से आगे की शिक्षा अर्जित करना चाहता था. अपने पिता द्वारा समझाने पर भी एकलव्य ने गुरुद्रोण से शिक्षा लेने की बात के अपने निर्णय पर अडिग रहा. लेकिन गुरुद्रोण ने एकलव्य को राजधर्म के चलते शिक्षा न देने की अपनी विवशता जब एकलव्य को जताई तो एकलव्य ने गुरु की एक मूर्ति बनाकर उसके सामने अभ्यास करने लगा.
निरंतर अभ्यास के कारण एकलव्य धनुर्विद्या में इतना पारंगत हो गया कि एक रोज़ वन में अभ्यास करते समय जब गुरुद्रोण अपने शिष्यों और एक स्वान के साथ उस रास्ते से गुज़र रहे थे तब एकलव्य को देख वह कुत्ता भौंकने लगा जिससे एकलव्य का ध्यान भंग हो गया. क्रोध में आकर एकलव्य ने उस स्वान के मुह को तीर से इस तरह बंद किया कि उसे एक चोट भी नहीं आई वह शांत भी हो गया.
गुरुद्रोण और उनके शिष्य एकलव्य की इस विद्या को देखकर अचंभित रह गए और उससे पूछा कि तुम्हे यह विद्या किससे सिखी?
तब एकलव्य ने गुरुद्रोण की प्रतिमा की ओर ईशारा करते हुए कहा कि अपने गुरु से.
एक्लव्य की गुरुभक्ति को देखकर गुरुद्रोण खुश हुए लेकिन अर्जुन को दुनिया का सर्वश्रेष्ट धनुर्धर बनाने के अपने वचन को याद कर एकलव्य का अंगूठा गुरुदक्षिणा में मांग लिया.
लेकिन इसके बाद भी एकलव्य अपनी चार उँगलियों से ही धनुर्विद्या का अभ्यास कर इस विद्या में फिर से पारंगत हो गया.
पिता की मृत्यु के बाद एकलव्य ने अपने राज्य का विस्तार शुरू किया और जरासंध की सेना की ओर से मथुरा पर आक्रमण कर दिया. एकलव्य का पराक्रम इतना अधिक था कि उसके आगे यादव सेना कमज़ोर पड़ रही थी. तब भगवान् श्रीकृष्ण युद्ध में उतर कर एकलव्य का वध किया.
अर्जुन को सर्वश्रेष्ट धनुर्धर बनाने की बात पर भगवान् श्रीकृष्ण ने खुद अर्जुन से कहा था कि ‘पार्थ तुम्हारें रास्तें में कोई बाधा न बने इसके लिए मैंने गुरुद्रोण का वध करवाया, कर्ण को कमज़ोर किया और ना चाहते हुए भी भीलपुत्र एकलव्य को वीरगति प्रदान की और इन सब के पीछे केवल एक ही वजह थी कि तुम धर्म के रास्ते पर थे. इसलिए धर्म की राह कभी मत छोड़ना’.
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