सोने की चिड़िया कहे जानेवाले भारत में कई बार विदेशी आक्रमणकारियों ने आक्रमण किया और इस देश की संपत्ति को लूटकर अपने देश ले गए, मुगलों ने इस देश पर लंबे अरसे तक राज किया फिर अंग्रेजों ने करीब 200 साल तक भारत को अपना गुलाम बनाकर रखा.
विदेशी आक्रमण से लेकर विदेशी हुकूमत तक का दर्द झेलने के बाद हिंदुस्तान आज़ाद हुआ लेकिन यह आश्चर्य की बात हे कि भारत का पड़ोसी देश नेपाल ना तो कभी गुलाम हुआ और ना ही उसपर कभी इस्लामिक आक्रमण हुआ.
बताया जाता है कि पाकिस्तान के डिफेंस फोरम में एक व्यक्ति ने यह सवाल किया था कि नेपाल पर कभी इस्लामिक आक्रमण क्यों नहीं हुआ और हैरत की बात है कि किसी को भी इसका सही जवाब नहीं पता था कि आखिर क्यों मुगल दिल्ली से हज़ारों किलोमीटर दूर दक्षिण भारत में पहुंच गए जबकि दिल्ली से कुछ सौ किलोमीटर दूर स्थित नेपाल को छोड़ दिया.
कभी नेपाल के रास्ते ही होता था व्यापार
अगर आप भी यही सोच रहे हैं कि नेपाल हमेशा से गरीब देश रहा है इसलिए वहां ना तो अंग्रज़ों ने अपनी हुकूमत दिखाई और ना ही मुगलों ने. तो हम आपको बता दें कि नेपाल कभी गरीब नहीं था. तिब्बत, चीन और भारत के बीच हो रहे व्यापार के लिए सारा माल नेपाल के रास्ते से ही होकर गुज़रता था. नेपाल व्यापार का एक बड़ा केंद्र था ऐसे में अल्लाह के बंदों के लिए भी पहाड़ चढ़ना कोई बड़ी बात नहीं थी.
नेपाल पर कभी इस्लामिक आक्रमण क्यों नहीं हुआ इसका जवाब नेपाल की एक कहानी में छुपा हुआ है और उसी कहानी को ‘सौर्य’ नाम की नेपाली फिल्म के ज़रिए भी दर्शाया गया है.
इस दिलचस्प कहानी के अनुसार गुरु गोरखनाथ ने नेपाल नरेश को एक दिव्य तलवार भेंट की थी. जो सदियों से नेपाल की रक्षा कर रही है और उस तलवार को आज भी नेपाल के एक संग्रहाल में सुरक्षित रखा गया है.
समशुद्दिन बेग आलम ने किया था आक्रमण
विदेशी मुस्लिमों ने नेपाल पर कभी आक्रमण नहीं किया यह बात बिल्कुल झूठी है. दरअसल 12वीं से 13वीं शताब्दी के बीच समशुद्दिन बेग आलम नाम के एक इस्लामिक आक्रमणकारी ने नेपाल पर आक्रमण किया था.
बताया जाता है कि इस्लामिक सेना बहुत बड़ी थी और नेपाल की गोरखा सेना उनके मुकाबले बहुत छोटी थी. बावजूद इसके गोरखा सेना ने उनका डटकर मुकाबला किया और इस्लामिक सेना को भारी नुकसान झेलना पड़ा.
इस युद्ध में गोरखा सेना हार गई और गोरखा सेनापति अकेला बचा था. अकेले होने के बावजूद वह अकेले कई सैनिकों से लड़ रहा था. इस नज़ारे को देखकर समशुद्दिन ने अपनी सेना को लड़ाई रोकने का आदेश दिया और गोरखा सेनापति को उसकी बहादूरी के लिए दाद देने लगा.
गुरू गोरखनाथ की दिव्य तलवार ने दिखाया था कमाल
समशुद्दिन ने गोरखा सेनापति से कहा कि अपनी जान बचाने के लिए वो उसकी शरण में आ जाए लेकिन गोरखा सैनिक ने नेपाल नरेश की दी हुई गोरख काली तलवार को फिर से हाथ में उठा लिया और अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए दोबारा लड़ने लगा.
आखिरकार गोरखा सेनापति ने अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए अपनी जान गंवा दी और मरते वक्त उसने गोरख काली तलवार को ज़मीन में घुसाकर खंभे की तरह खड़ा कर दिया. समशुद्दिन का पैर तलवार के पास आकर रूक गया और तलवार को पार करके आगे बढ़ने की उसकी हिम्मत ही नहीं हुई.
आखिरकार इस भीषण युद्ध के बाद समशुद्दिन अपने सैनिकों के साथ वापस लौट गया.फिर दोबारा कभी किसी इस्लामिक आक्रमणकारी ने नेपाल पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं जुटाई.
गौरतलब है कि नेपाल हमेशा से ही एक आज़ाद देश रहा है और यहां सिर्फ एक बार किसी इस्लामिक आक्रमणकारी ने आक्रमण किया था लेकिन दोबारा इस मुल्क पर आक्रमण करने की हिम्मत किसी भी आक्रमणकारी ने नहीं दिखाई.
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