आप फूल क्यों तोड़ते हैं? पौधों को क्यों नष्ट करते हैं? क्यों आप फर्नीचर नष्ट करते हैं या कोई कागज़ इधर-उधर फेंक देते हैं. आपको ऐसा कार्य न करने के लिए कितने ही बार टोका गया होगा या रोका गया होगा पर ये सब आप करते नहीं थकते. अपनी गलतियों को आप इसी तरह दोहराते जाते हैं. लेकिन क्या ऐसा नहीं लगता आपको कि ऐसे कार्य करते वक़्त आप अविचारशीलता की अवस्था में होते हैं? ये कार्यकलाप आप इसलिए करते हैं क्योंकि आप असावधान रहते हैं. आप ऐसे करते वक़्त कुछ सोचते ही नहीं. आपका मन तंद्रा में रहता है. आप पूर्णतः सजग नहीं हैं. वहां होकर भी स्वयं उस स्थान पर उपस्थित नहीं हैं. फिर ऐसी अवस्था में आपको मना करने का कोई औचित्य नहीं रह जाता. आप उससे कुछ ग्रहण कर ही नहीं पाएंगे.
वहीं दूसरी ओर अगर मना करने वाले आपको विचारशील होने में, सही अर्थों में सजग होने में, वृक्षों, पक्षियों, सरिता और बसुधा के अद्भुत ऐश्वर्य का आनंद लेने में आपकी सहायता कर सकें. तब आपके लिए एक छोटा-सा इशारा भी काफी होगा. तब फिर आपके अंदर एक तरह की नई अनुभूति जिसको हम दूसरे शब्दों में कहें तो संवेदनशीलता विकसित हो चुकी होगी. तब आप पहले की तरह गलतियां नहीं दोहराएंगे. तब तो आप प्रत्येक वस्तु के प्रति संवेदनशील और सचेत हो चुके होंगे.
लेकिन सोचने वाली बात ये है कि ये कितने दुर्भाग्य का विषय है कि ‘ये करें’, ‘ये न करें’ कहकर कैसे हमारी संवेदनशीलता ही नष्ट कर दी जाती है. फिर आपके माता-पिता, शिक्षक, समाज, धर्म, पादरी, आपकी खुद की महत्वकांक्षाएं, आपका लालच और ईर्श्याएं, ये सभी आपको कहते रहते हैं- आप ये करें और ये न करें. हमें जितना हो सके उतना इन ‘करने’ और ‘न करने’ से मुक्त रहना चाहिए. इसके साथ ही आपको संवेदनशील भी होना चाहिए ताकि आप सहज दयालु बन सकें और स्थितियों को बेहतर ढंग से समझ पाएं. जैसे आप किसी को चोट न पहुंचाएं व इधर-उधर कागज़ न फेंकें. अपनी राह का पत्थर बिना हटाये आगे न बढ़ें. इन सारी बातों के लिए अंकुश की आवश्यकता नहीं बल्कि विचारशीलता की ज़रूरत होती है.
गलतियां करने के लिए सोचना नहीं पड़ता है, वो तो खुद-ब-खुद हो जाती हैं. क्योंकि उन्हें करने के लिए सचेत नहीं रहना पड़ता यानी होश के बगैर ये कदम उठ जाते हैं और हम ऐसे में गलतियां कर बैठते हैं. अगर हम अपने मन में विचारशीलता का दीपक जलाएं तो न जाने होने वाली कितनी ही गलतियों का दोष हम पर से उतर सकता है. लेकिन हम सहज होने से घबराते हैं, हम अपनी आँखें खोलने से बचते हैं. हमें अन्धकार में रहने में ही आनंद आता है. हमने तो सोचना-समझना ही जैसे बंद कर लिया है तो भला विचार कौन करे कि क्या अर्थ है और क्या अनर्थ? हम तो बस चले जा रहे हैं बिना सोचे-समझे कि आखिर जा किधर रहे हैं और पहुंचना कहां है?
सवाल कई सारे होंगे आपके मन में तो थोड़ा अपने से भी बातें करिए. उसको भी जानिए, सचेत बनिए और विचारशील बनकर बार-बार होने वाली गलतियों से छुटकारा पाइए.
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