यह सभी जानते हैं की सिनेमा हमारे समाज का आइना है. वह सिनेमा ही है जो ऐसी कई छुपी बातों को समाज के लोगों तक एक बड़े ही सटीक रूप में पहुंचाता है. इस सिनेमा के कई रूप है.
उनमें से एक है वृत्तचित्र या डाक्यूमेंट्री सिनेमा, जो सुचना और प्रेरणा का स्तोत्र होती हैं. डाक्यूमेंट्री फिल्म आपको एक सीधे तरिके से किसी भी चीज़ की वस्तु-स्थिति बयान करती है.
यह सामाजिक परिवर्तन का एक बड़ा ही मूल हथियार है जो लोगो को सीधे और सटीक तरह से कोई भी सन्देश दे सकता है.
कुछ ऐसी ही डाक्यूमेंट्रीयां बनी है जिसने हमारे देश की बहुत सी कहानियों को कैमरा पर बड़े ही प्रभावी ढंग से दिखाया है.
२००४ में ऑस्कर अवार्ड से सम्मानित यह डाक्यूमेंट्री कोलकाता के रेड लाइट एरिया, सोनागाछी के बारे में बनाई गई है. रोस कौफ्फ्मन और ज़ाना ब्रिस्की द्वारा निर्देशित यह डाक्यूमेंट्री वहां के वेश्यालयों का जीवन बयां करती है. शुरुआत में ज़ाना ब्रिस्की ने इस जगह की फोटो खींचना शुरू कीये और फिर बाद में जब उनका जुडाव वहां के बच्चों से हुआ तो उन्होंने यह डाक्यूमेंट्री बनाने का निर्णय लिया. इसमें वहां के बच्चों का जीवन और उनकी दिनचर्या को बड़ी ही नज़दीक से दिखाया गया है. यहाँ के बच्चों को निर्देशक ने फोटोग्राफी सिखाना शुरू किया और साथ ही उनका जीवन सुधारने का भी निर्णय लिया.
मेगन मायलान द्वारा निर्देशित यह डाक्यूमेंट्री ने भारत में, बच्चों में हो रही फांक होंठ या क्लेफ्ट लिप की बीमारी से जूंझ रहे बच्चों के बारे में बनी है. उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर शहर में पांच वर्षीय पिंकी नाम की लड़की फांक होंठ के साथ पैदा हुई थी, जो की इस बीमारी से अवसादग्रस्त है. वह अपने होठों के ऑपरेशन का बड़ी ही बेसब्री से इंतज़ार कर रही हैं क्यूंकि उसके परिवार वाले इसका खर्चा नहीं उठा सकते. हालांकि पिंकी के माता-पिता एक दिन एक समाज सेवक से मिलते हैं जो गाँव-गाँव जा कर इसका मुफ्त इलाज करते हैं. २००८ में इस डाक्यूमेंट्री को ऑस्कर अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था.
इंडिया अनटच्ड बड़े ही बेहतरीन तरह से हमारे देश के जाती-धर्म संकट की ज़मीनी हकीकत बयाँ करती है. इसमें बताया गया है कि कैसे अभी तक भारत के छोटे-बड़े गावों में दलितों के साथ दुर्बल व्यवहार किया जाता है और लोग छूत-अछूत की परंपरा को अभी तक तरजीह दे रहे हैं. के. स्टालिन द्वारा निर्देशित यह फिल्म इस विषय पर प्रकाश डालती है.
सपनों के शहर मुंबई के बारे में कई बातें कही और लिखी गई है. देश के जाने-माने डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्देशक आनंद पटवर्धन ने मुंबई के झुग्गीवासियों की पीड़ा को कैमरा में कैद किया है. १९८५ में बनाइ गई यह फिल्म दर्शाती है कि कैसे यहाँ के झुग्गीवासी हर वक़्त अपने घर खो जाने के डर में जीते रहते हैं.
ऐसी कई फिल्में हैं जो कि हमारे समाज की सटीक तस्वीर हमारे सामने रखती है और हमें कई चीज़ों के बारे में सोचने पर मजबूर कर देती है.
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