नए साल में साल बदलता है, तारीख़ बदलती है लेकिन दिन वही रहते हैं, हमारी दिनचर्या भी तक़रीबन वैसी ही रहती है और हम में भी कुछ ख़ास बदलाव नहीं आते!
शायद इसी बदलाव की चाहत में हम सब नए साल के ढेरों रेसोल्युशन्स बना लेते हैं कि साल की पहली तारीख़ से ये करेंगे, वो नहीं करेंगे, ऐसा होगा, वैसा नहीं होगा वगैरह वगैरह! पर आख़िर होता क्या है?
आईये दिखाऊँ नए साल के रेसोल्युशन्स की सच्ची यात्रा जो आपकी आँखें खोल देगी:
1) रेसोल्युशन्स बनाना
सबसे पहला क़दम होता है ख़ुद से वादा करना कि हम अगले साल में ये नया करेंगे और इस पुराने से ख़ुद को मुक्त करेंगे! कोई कहता है शराब छोड़ दूंगा तो किसी को लगता है इस नए साल में सेक्सी फ़िगर बनाना ही है! कोई पैसा कमाने के पीछे भागता है तो कोई घरवालों को ज़्यादा वक़्त देने का वादा करता है! और इसके बाद सारी दुनिया को चिल्ला-चिल्ला कर हम बताते भी हैं कि क्या रेसोल्युशन्स हैं हमारे इस साल के!
2) वादे पूरे करने का स्ट्रेस
पहले दो-तीन दिन तो हम अपने वादों पर टिकते हैं लेकिन उसके बाद उन्हें पूरा कर पाना जान पर आने लगता है! बात वही है, तारीख़ बदली है, आप और हम तो वही के वही हैं! अपना रूटीन तो चल ही रहा होता है, साथ में हर पल ख़ुद को ख़ुद से किये वादे याद दिलाते रहने पड़ते हैं! सामने गुलाब जामुन आ गए तो हाथ रोकना पड़ता है, ठंडी की सुबह जॉगिंग के लिए ज़बरदस्ती उठना पड़ता है! और आपको याद ना रहे तो घरवाले और दोस्त-यार ताने मारने शुरू कर देते हैं कि इतने जल्दी रेसोल्युशन्स भूल गए?
3) वादे पूरे ना कर पाने की टेंशन
एक तो रेसोल्युशन्स याद नहीं रहते और फिर उनके पूरे ना हो पाने की वजह से टेंशन जो होती है वो अलग! काम के बोझ में दबे हुए कब डाइटिंग खिड़की से बाहर फुर्र हो जाती, इसका एहसास ही नहीं रहता! या घरवालों को डिनर का प्रॉमिस करके आधी-रात घर में घुसना होता है तो उसकी भरपाई के लिए एक और वादा कर दिया जाता है जिसके पूरे होने के भी आसार आधे-अधूरे ही होते हैं!
4) गिल्ट या अपराध बोध
जब रेसोल्युशन्स एक-एक करके टूटने लगते हैं तो उसका अपराध बोध बहुत ज़ख़्मी करता है यार! लगता है फिर से फ़ेल हो गए! कोशिश पुरज़ोर होती है लेकिन नतीजा वही का वही! लगता है क्या हम लूज़र हैं जो दो चार वादे भी नहीं निभा सकते?
5) ढीठ बन जाना
अब यार ख़ुद को गाली देना बड़ा मुश्किल है और ग़लती से अपनी ग़लती मान भी ली अपने ही आगे तो ज़्यादा देर तक ख़ुद को सज़ा दी ही नहीं जाती! साल दर साल अपने रेसोल्युशन्स को बना कर तोड़ना एक आदत सा बन जाता है और फिर हम हो जाते हैं आला दर्ज़े के ढीठ! फिर तो लगता है कि वादा करो और तोड़ लो, की फ़रक पैंदा है? बस, इसी तरह जब ख़ुद से किये वादे नहीं निभा पाते तो दूसरों के साथ क्या निभाएँगे?
तो देखा दोस्तों, कैसे ये रेसोल्युशन्स हमें एक अच्छा इंसान बनाने की बजाये एक बुरा इंसान बना देते हैं? जिस समाज में कोई वादा ही ना निभा सके उस समाज का भविष्य अच्छा नहीं हो सकता! इसलिए सभी बुराईयों की जड़ हैं ये रेसोल्युशन्स! तो आओ इस साल का नया रेज़ोल्यूशन बनाएँ कि इस साल कोई रेज़ोल्यूशन नहीं होगा!
अब इसे तो निभा लेना यार!
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