यदि हम भारत का इतिहास उठाकर देंखे तो यह भयंकर भूलों से भरा पड़ा है.
ऐसी ही एक भूल का नाम है जवाहर लाल नेहरू.
बहुत से लोगों को इस बात की जानकारी नहीं होगी कि आज संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की जिस स्थायी सीट के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया भर में घूम घूम कर समर्थन जुटा रहे हैं, वर्ष 1953 में भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य की पेशकश हुई थी ?
लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थायी सदस्य बनने की पेशकश को ठुकरा दिया था बल्कि अपनी ओर से भारत की जगह चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले लिया जाने की पेशकर दी. गौरतलब है कि तब तक ताइवान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सदस्य था.
सामरिक मामलों के विशेषज्ञ बताते हैं कि भारत को बीती सदी के पांचवें दशक में अमेरिका और सोवियत संघ ने अलग-अलग समय में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता दिलवाने की पेशकश की थी.
तब ये दोनों देश संसार के सबसे शक्तिशाली देश थे और इनके पास इस बात की शक्ति थी कि वे किसी अन्य देश को सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के रूप में जगह दिलवा सकते थे.
लेकिन उस वक्त नेहरू जी पर विश्व शांति का भूत इस कदर सवार था कि वे अपनी जिद और भ्रम में आगे देश का भविष्य और चुनौतियों को देख नहीं पाए.
एक ओर रूस और अमेरिका भारत से आग्रह कर रहे थे कि उसको संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्ता का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए. वहीं दूसरी ओर नेहरु जी ने इन दोनों देशों से चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जगह देने की वकालत कर रहे थे.
आप को जानकर हैरानी होगी कि जिस चीन को नेहरू जी ने अपने हिस्से की सीट दिलवाई थी वही चीन आज भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने की राह में रोड़ा साबित हो रहा है.
आज भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने के लिए हर कूटनीतिक कोशिशें कर रहा है. रूसी राष्ट्रपति पुतिन से लेकर अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने इस मसले पर भारत के दावे का समर्थन भी किया.
भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलाने को लेकर वर्ष 2008 में ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में रूस ने प्रस्ताव भी रखा था. रूस चाहता था कि भारत को संयुक्त राष्ट्र का स्थायी सदस्य का दर्जा मिलना चाहिए. लेकिन रूस के प्रस्ताव का उसी चीन ने कड़ा विरोध किया,जिसको संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की सदस्यता दिलवाने के लिए नेहरू ने अपनी सीट छोड़ दी थी.
नेहरू की अदूरदर्शिता पूर्ण विदेश नीति को लेकर भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने एक बार अपने ब्लाग में लिखा था कि नेहरुजी का अमेरिकी पेशकश को अस्वीकार करने से बढ़कर कोई उदाहरण नहीं हो सकता कि वे देश के सामरिक हितों को लेकर कितने लापरवाह थे.
एक ओर अमेरिका चीन को हाशिए पर लाने के लिए भारत को मजबूती दे रहा था तो दूसरी ओर नेहरू जी थे जो चीन को सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट दिलवाने के लिए दबाव बनाए हुए थे.
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