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इशारों-इशारों में बनते रिश्ते

सुबह का चाय-नाश्ता प्रसाद की तरह थोडा-थोडा खा-पीकर घर से निकलते दफ्तरों में जाने वाले लोग.

कोई अपनी गाड़ी में बैठकर रवाना होता है तो कोई ऑटो-रिक्शा की तलाश में दर-ब-दर भटककर. कोई अपनी मोटरसाइकिल के सहारे तो कोई ट्रेन या बसों के सहारे पर निर्भर होते हैं. मुंबई का मशहूर ट्रैफिक और ऊपर से बदन को पसीने से तर-तर कर देनेवाली गर्मी का मिश्रण जब आप पर हमला करना शुरू कर देता है तो फिर चाहे वह ए.सी की ठंडी हवा हो या कार के छत की छाँव, कोई भी आपकी मदद नहीं कर सकता.  लेकिन सफ़र में हमें कुछ लोग रोज़ दिखाई दे जाते हैं. कुछ ऐसे लोग जो रोज़ एक ही रास्ते पर या एक ही ट्रेन या बस में मिलते हैं.

बारिश के मौसम में बसों या ट्रेनों की विंडो सीट पर बैठकर, खिडकियों के सहारे कंधा लगाकर पिछले दिन की बातों को याद करना. गर्मियों में कार या मोटरसाइकिल चलाते-चलाते अपनी भौहें पर जमा पसीने को अंगूठे के नाखून से पोंछ कर गिराना और ठंडियों में किसी मोड़ पर लगे सिग्नल पर रूककर उस लम्हे की गर्मी सेकना. यह सब बातें हमसे ऐसे जुडी होती हैं जैसे इनके बगैर ज़िन्दगी अधूरी हो जायेगी.

ऐसे बहुत से लोग होते हैं जो रोज़ाना एक ही रास्ते से, एक ही मोड़ से गुज़रते हैं. और ऐसे लोगों में कई बार मुस्कानों और आँखों के इशारों के ज़रिये रिश्ते इजाद होते रहते हैं. कोई किसीको ‘मूंछवाला’ के नाम से जानता है तो कोई किसीको उनके गाड़ियों के नाम से जानता है. यह रिश्ते भी कुछ-कुछ ‘यादों’ की तरह ही होते हैं. और ‘यादों कि तरह’ से मेरा मतलब है कि जिस तरह यादें लगातार बनती रहती हैं वैसे ही यह रिश्ते लगातार बनते रहते हैं.

कोई ऐसा व्यक्ति जो रोज़ाना आपको सफ़र करते हुए मिलता हो और अगर वह कोई एक दिन ना मिले तो एक हलकी सी बेचैनी आपके दिल की एक धड़क को भारी कर ही देती है. फिर अगले दिन अगर वह व्यक्ति मिले तो मन करता है कि रुककर पूँछें कि “ ‘भई’ कल कहाँ गायब हो गए थे?” अनजान लोग, जिनको आप जानते तक नहीं हो, उनसे ऐसे मित्रता का रिश्ता कायम करना कितनी प्यारी और अच्छी बात होती है. दिशाएं पूंछने के बहाने, हाल-चाल पूंछने के बहाने जो रिश्ते कायम होते हैं वह थोड़े हटके और निःस्वार्थ होते हैं. मुंबई की लोकल ट्रेनों में करीब-करीब ७५ लाख लोग रोज़ाना सफ़र करते हैं और रोज़ाना सफ़र कर रहे लोगों में एक-दुसरे से थोड़ी बहुत जान पहचान बन ही जाती है. कोई भागते-भागते अगर ट्रेन पकड़े तो दरवाज़े पर खड़े लोग सहारा देकर उसे बहुत बार अंदर खींच लेते हैं और गिरने से बचा लेते हैं.

बच्चों की ‘कुल्फी वाला’, ‘इमली वाला’ और ‘खिलौने वाला’ जैसे लोगों से जान-पहचान अधिक होती है.
जितने व्याकुल ये कुल्फी, इमली और खिलौनों के विक्रेता बच्चों के इंतज़ार में होते हैं उतने ही व्याकुल बच्चे उनसे मिलकर चीज़ें खरीदने के इंतज़ार में.

शाम के समय घर लौटकर जब रोटियों के टुकड़े तोड़ते-तोड़ते हम अगले दिन के बारे में सोचने लगते हैं तब यही लगता है कि फिर इन राह चलते लोगों से मिलें जिनसे आज मुस्कान के सहारे रिश्ते बने थे.

फिर यही लगता है कि

पता नहीं क्यों….

लेकिन कुछ मुलाकातें, यादों सी लगती हैं.

Durgesh Dwivedi

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Durgesh Dwivedi

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