जिहाद की बुनियादी सच्चाईयों की अनदेखी करके आतंकवाद के ख़त्म होने की आशा करना व्यर्थ होगा व सभ्य समाज के लिए घातक.
कुछ साल पहले 26 नवंबर को मुंबई की सड़कों पर लाशें बिछाने वाले अजमल कसाब को फांसी दिए जाने के 24 घंटों के भीतर ही कई इस्लामी आतंकी संगठनों ने भारतीयों को निशाना बनाकर बदला लेने की चेतावनी दी थी.
गौरतलब है कि इस्लामी आतंकी कट्टरपंथियों के लिए केवल भारत व हिन्दू ही दुश्मन नहीं हैं बल्कि इनकी कहानी तो समझ के भी परे है. चाहे पाकिस्तान में शियाओं पर बहुसंख्यक सुन्नियों के लगातार हमले किए जाने की बात हो या ईरान जहाँ शिया बहुसंख्यक हैं जो सुन्नियों को अपना निशाना बनाते हैं. इराक में तकरीबन हर रोज़ अल्पसंख्यक सुन्नियों पर शियाओं के बम गिरते हैं. गौर करने वाली बात है कि इस्लाम को ही मानने वाले दो संप्रदायों के बीच ऐसा टकराव क्यों? उन्हें ऐसी हिंसा करने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है?
पाकिस्तान जैसे मुस्लिम बहुल राष्ट्र में अल्पसंख्यकों की आबादी को नगण्य करने के बाद अब वे अपने ही मज़हब के अल्पसंख्यकों को मारने में जुट गए हैं. एक आंकड़ों के मुताबिक़, सन 2000 के बाद से अबतक उपमहाद्वीप में मज़हबी हिंसा में हिन्दुओं की अपेक्षा अपने ही मुसलमान भाईयों के हाथों मरने वाले मुसलमानों की संख्या दस गुनी अधिक है. आज के परिद्रश्य में हिंदू बहुसंख्या के अधीन हिंदू खुशहाल हैं, इसी के साथ हिंदू बहुसंख्या के अधीन मुसलमान भी उतने ही खुशहाल हैं क्योंकि इसके कारण इस्लाम के अंतर्गत होने वाले हमलों से उन्हें सुरक्षा मिल जाती है.
देखा जाए तो देश विभाजन के बाद से भारत में मुसलमानों की आबादी बढ़कर जहाँ 18 प्रतिशत तक हो गई है वहीं पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी 20 प्रतिशत से घटकर आज एक प्रतिशत से भी कम रह गई है. सुन्नी बहुल कश्मीर को छोड़ दें तो शेष भारत में अल्पसंख्यक शिया बहुसंख्यक सुन्नियों के हमले से सुरक्षित हैं. आज तो ये स्थापित सत्य बन चुका है कि जहाँ कहीं भी मुसलमान अल्पसंख्यक होते हैं वे सेक्युलर व्यवस्था पर अपनी आस्था प्रकट करते हैं पर जहाँ कहीं भी वे बहुसंख्यक होते हैं तब उन्हें सेकुलरवाद एक गाली की तरह लगने लग जाती है. बात फिर अकेले पाकिस्तान की ही क्यों हो, अमरनाथ यात्रा और कश्मीरी पंडितों को लेकर कश्मीर के घटनाक्रम इस कटु सत्य को बतलाते हैं.
पाकिस्तानी आवाम में भारत विरोधी भावना अविभाजित भारत के मुसलमानों की मानसिकता ही है. देश के विभाजन के समय मुसलमानों को आशंका थी कि कैसे वे ब्रितानियों के जाने के बाद ‘काफिर’ हिंदुओं के साथ बराबरी से रह पाएंगे. वैसे भी जिन लोगों को हमेशा से यही सब सिखाया जाता रहा हो कि इस्लाम ही एकमात्र सच्चा और अंतिम पंथ है. उनके लिए बहुलतावादी सनातनी संस्कृति वाले भारत के प्रति जिहाद के लिए उकसाना मुश्किल कार्य नहीं.
जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर, तालिबान जैसे जिहादी संगठनों के लिए कट्टरपंथी तत्व गरीब एवं अशिक्षित परिवारों के बच्चे ढूंढते हैं जिन्हें खाने और पढ़ाने के नाम पर मीलों दूर प्रशिक्षण शिवरों में जिहाद पर भेज दिया जाता है. फिर उन्हें सिर्फ इस्लाम की शिक्षा दी जाती है. वहीं, बाहरी दुनिया से वे कट जाते हैं. इसके बाद इन बच्चों के साथ घोर अमानवीय व्यवहार किया जाता है जिससे उनके मन में खुदके अस्तित्व को लेकर ही घिन आने लग जाती है. इतने घोर अमानवीय व्यवहार के बाद तो उन्हें मौत कहीं ज्यादा बेहतर लगने लगती है. इसके बाद उन्हें इस्लाम के लिए मर मिटने पर जन्नत और हूरों के मिलने का लालच दिया जाता है. फिर ऐसे बच्चों को पश्चिमी देशों एवं भारत के मुसलमानों के कथित उत्पीडन की फर्ज़ी सीडियां दिखाई जातीं हैं.
उन्हें इसका बदला लेने को जिहाद को मज़हबी दायित्व बताकर मरने-मारने के लिए सहज तैयार कर लिया जाता है. ऐसी मानसिकता के रहते जिहादी फैक्ट्रियों के बंद होने की उम्मीद व्यर्थ ही मानी जा सकती है.