भारत में हर चीज़ का एक ट्रेंड बना हैं.
मिडिया में भी ऐसे ही ट्रेंड चलते हैं. दिवाली आई तो ‘चैनललोगो’ के पास फटाकों के साथ ‘शुभदिवाली’ लिख कर चला देंगे और यही फटाके होली में गुलाल के साथ बदल दिए जाते हैं. उसी तरह देशभक्ति वाली कोई घटना में तिरंगा वाला स्क्रोल बनकर चला जाता हैं.
इन्ही सब ट्रेंड में एक ट्रेंड आज़ादी का भी हैं, जो हम सब को पुरे साल में बस दो ही दिन याद आता हैं,
एक 26 जनवरी को और दूसरा 15 अगस्त को.
अपनी-अपनी गाड़ियों में तिरंगा लगाकर और अपने व्हाट्सअप्प या FB वाल पर आज़ादी वाले स्टेटस डालकर हम सब इन दो दिनो में अपने दिल को यह यकीन दिला देते हैं कि हमने अपने हिस्से की देशसेवा कर ली हैं और अब इस छुट्टी का मज़ा लेते हैं.
क्या हम में से किसी ने भी यह सोचने की कभी कोशिश की हैं कि हमने तो अपने देश से अपनी दिल की बात कह दी,
लेकिन हमारा देश भी हमसे कुछ कहना चाहता हो शायद, सोचिएं क्या कह सकता हैं वो?
उस की हालत तो उस इंसान जैसी हैं, जो कम उम्र का होते हुए भी मज़बूरी और गरीबी के चलते समय से पहले बूढ़ा हो गया हैं.
मेरी यह बात काबिल-ए-गौर हैं क्योकि भारत से पहले कई और देश गुलाम थे, जो भारत के आज़ाद होने के बाद तक भी गुलाम रहे. फिर वह कैसे इतने आगे बढ़ गए और भारत पीछे रह गया. भारत पर कौन सी तकलीफे इस कदर आई की आज़ाद भारत वक़्त से पहले ही बूढ़ा लगने लगा.
हो सकता हैं आज आप फिर मिडिया पर नेगेटिव होने का आरोप लगाये, लेकिन हम भी मजबूर हैं क्योकि भारत की हालत अभी यहीं हैं.
हमें आज़ादी तो मिल गयी लेकिन हम अपने नेताओं के गुलाम हो गए!
हम आज़ाद तो हुए लेकिन अपने धर्म के गुलाम हो गए!
हम आज़ाद तो हुए लेकिन अपनी संकीर्ण मानसिकता के गुलाम हो गए!
हम आज़ाद तो हुए लेकिन अपने स्वार्थ के गुलाम हो गए!
हर जगह हम अपने बारें में ही सोचते रहे और उस देश को भूल गए जिसने हमें यह ज़मीन दी.
हम आगे बढ़ते गए ये देश पीछे छुटता गया.
इंडिया यंग होता गया लेकिन भारत बूढ़ा होता गया.
क्या कभी हमने इस दर्द को समझा?
क्या कभी हमने उससे उसकी दिल की बात पूछी? लेकिन इस देश में हर कोई हमारी तरह नहीं हुए. कुछ लोगों ने इस बूढ़ा का दर्द को समझने की कोशिश करी और उसके हालत पर एक बात कहीं:-
“कल नुमाईश में मिला था चिथड़े पहने हुए,
मैने पूछा नाम, तो बोला हिन्दुस्तान”
दुष्यंत कुमार का यह शेर आज के भारत की कहानी कहता हैं.
हम रोज़ उस हिंदुस्तान से मिलते हैं, उस भारत से मिलते हैं और रोज़ उसे देखकर आगे निकल जाते हैं. कभी उस भारत से एक बार रुक कर बात करे तो शायद अपने दिल का हाल वो बूढ़ा कुछ इस तरह बताये-
मैं अब 68 का हो चला हूँ, बूढ़ा..कमज़ोर सा..
वक़्त ने मेरे चेहरे मे अपनी दास्तान लिख दी हैं.
साँसे जल्दी ही फूलने लगती है अब..
हाफते हुए जब कही रुकने लगू तो एक ख्वाहिश रखता हूँ
अब सहारा करने आ जाना बच्चों
हाथ पकड़ कर बैठाना और कहना
बूढ़े बाबा अब थकने लगे हो आप,
आओ बैठों, थोड़ा आराम करो.
एक गीत हम आपकों सुनाते हैं
जो हिन्द की गाथा गाते हैं.
सरगम कई पर साज़ एक,
दिल कई पर आवाज़ एक,
हर ज़ुबान मे यही एक बात रहे,
हर मज़हब,हर दीन सब साथ रहे,
ये हिंद बड़ा फौलादी है,
ये हिंद का जश्न-ए-आज़ादी है.
रोज़ वह बूढ़ा उसके बच्चों की जानिब उम्मीद भरी नज़रों से देखता हैं और मुझसे, आप से, हमसब से एक ही सवाल करता हैं
“क्या मेरी आज़ादी के यही मानी थे?”