आपने देश के कई ऐसे मंदिरों के बारे में सुना होगा जहां आज भी बलि देने की प्रथा है.
लेकिन क्या आप एक ऐसे मंदिर के बारे में जानते हैं जहां जानवरों की नहीं बल्कि इंसानों की बलि चढ़ाई जाती थी.
आज हम आपको एक ऐसे ही मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं, जहां अंग्रेजों की बलि दी जाती थी.
दरअसल अंग्रेजों की बलि लेनेवाला यह अनोखा मंदिर गोरखपुर से 20 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद है, जो तरकुलहा देवी मंदिर के नाम से मशहूर है.
तरकुलहा देवी मंदिर
बताया जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 1857 के संग्राम से पहले ही किया गया था.
डुमरी के क्रांतिकारी बाबू बंधू सिंह के पूर्वजों ने एक तरकुल यानि ताड़ के पेड़ के नीचे पिंडियां स्थापित की थी, जो आगे जाकर तरकुलहा देवी के रुप में विख्यात हुई.
ऐसी मान्यता है कि मां काली ही तरकुलहा देवी पिंडी के रुप में यहां विराजमान है. जो यहां के स्थानीय लोगों की कुलदेवी भी मानी जाती हैं.
अंग्रेजों का सिर किया जाता था अर्पण
बिहार और देवरिया जाने का मुख्य मार्ग शत्रुघ्नपुर के जंगल से होकर जाता था. इस रास्ते से गुज़रनेवाले अंग्रेजों का सामना कई बार क्रांतिकारी बंधु सिंह से हो जाता था.
कहा जाता है कि बंधू सिंह गोरिल्ला युद्ध नीति में निपुण थे.
जब भी बंधू सिंह की मुठभेड़ अंग्रेजों से होती थी, तब बंधु सिंह अंग्रेजों को मारकर उनका सिर इसी जंगल में तरकुल के पेड़ के नीचे स्थित पिंडी पर देवी मां को अर्पण कर देते थे.
अंग्रेजों को नहीं लगती थी इसकी भनक
चौरी-चौरा डुमरी रियासत में जन्मे बाबू सिंह अंग्रेजों का सफाया कर उसे माता के चरणों में इतनी चालाकी से अर्पण करते थे कि काफी समय तक अंग्रेजों को इसकी भनक तक नहीं लगी.
एक के बाद एक सिपाहियों के गायब होने की वजह से अंग्रेजों को बंधू सिंह पर शक हुआ. जिसके बाद अंग्रेजों ने उनकी हर चीज को मिटाने की पूरी कोशिश की.
इस दौरान अंग्रेजों से लोहा लेते हुए बंधू सिंह को अपने पांच भाईयों की जान से हाथ धोना पड़ा.
6 बार फांसी से बचे बंधू सिंह
अंग्रेज सैनिको की हत्या के बाद गिरफ्तार किए गए बंधू सिंह को 6 बार फांसी पर चढ़ाने की कोशिश की गई लेकिन हर बार वो देवी मां के आशीर्वाद से बच निकले.
सातवी बार बंधू सिंह ने तरकुलहा देवी का ध्यान करते हुए उनसे इस दुनिया से जाने की मन्नत मांगी. तब जाकर अंग्रेज उन्हें फांसी पर लटकाने में कामयाब हो सके.
आज भी जारी है बलि की प्रथा
पहले जहां इस मंदिर में अंग्रेजों के लहु को अर्पित करने से माता खुश होती थी, वहीं आज भी माता को खुश करने के लिए लोग बलि देते हैं.
लेकिन अब यहां अंग्रेजों की बलि नहीं बल्कि बकरों की बलि दी जाती है. सालों पहले बलि देने की जो परंपरा बंधू सिंह ने शुरू की थी, वो प्रथा आज भी बरकरार है.
प्रसाद के रुप में मिलता है मटन
तरकुलहा देवी मंदिर देश का इकलौता ऐसा मंदिर है, जहां प्रसाद के रुप में मटन दिया जाता है. यहां पहले बकरों की बलि चढ़ाई जाती है, उसके बाद बकरे के मांस को मिट्टी के बर्तन में पकाया जाता है और बाटी के साथ प्रसाद के रुप में दिया जाता है.
मंदिर में घंटी बांधने की परंपरा
तरकुलहा देवी मंदिर में हर साल चैत्र रामनवमी से मेले का आयोजन किया जाता है.
एक महीने तक चलनेवाले इस मेले में आनेवाले लोग मन्नत पूरी होने पर मंदिर परिसर में घंटी बांधते हैं.
गौरतलब है कि इस मंदिर में हर साल भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है और सभी माता को प्रसन्न करने के लिए बलि की परंपरा का निर्वाह करते हुए अंग्रेजों की बलि नहीं बल्कि बकरों की बलि चढ़ाते हैं और प्रसाद के रुप में मिले मटन को खाकर खुशी-खुशी अपने घर लौट जाते हैं.
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