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1857 से पहले बने इस मंदिर में दी जाती थी अंग्रेजों की बलि ! आज भी बरकरार है बलि की परंपरा !

अंग्रेजों की बलि

अंग्रेजों को नहीं लगती थी इसकी भनक

चौरी-चौरा डुमरी रियासत में जन्मे बाबू सिंह अंग्रेजों का सफाया कर उसे माता के चरणों में इतनी चालाकी से अर्पण करते थे कि काफी समय तक अंग्रेजों को इसकी भनक तक नहीं लगी.

एक के बाद एक सिपाहियों के गायब होने की वजह से अंग्रेजों को बंधू सिंह पर शक हुआ. जिसके बाद अंग्रेजों ने उनकी हर चीज को मिटाने की पूरी कोशिश की.

इस दौरान अंग्रेजों से लोहा लेते हुए बंधू सिंह को अपने पांच भाईयों की जान से हाथ धोना पड़ा.

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6 बार फांसी से बचे बंधू सिंह

अंग्रेज सैनिको की हत्या के बाद गिरफ्तार किए गए बंधू सिंह को 6 बार फांसी पर चढ़ाने की कोशिश की गई लेकिन हर बार वो देवी मां के आशीर्वाद से बच निकले.

सातवी बार बंधू सिंह ने तरकुलहा देवी का ध्यान करते हुए उनसे इस दुनिया से जाने की मन्नत मांगी. तब जाकर अंग्रेज उन्हें फांसी पर लटकाने में कामयाब हो सके.

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आज भी जारी है बलि की प्रथा

पहले जहां इस मंदिर में अंग्रेजों के लहु को अर्पित करने से माता खुश होती थी, वहीं आज भी माता को खुश करने के लिए लोग बलि देते हैं.

लेकिन अब यहां अंग्रेजों की बलि नहीं बल्कि बकरों की बलि दी जाती है. सालों पहले बलि देने की जो परंपरा बंधू सिंह ने शुरू की थी, वो प्रथा आज भी बरकरार है.

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प्रसाद के रुप में मिलता है मटन

तरकुलहा देवी मंदिर देश का इकलौता ऐसा मंदिर है, जहां प्रसाद के रुप में मटन दिया जाता है. यहां पहले बकरों की बलि चढ़ाई जाती है, उसके बाद बकरे के मांस को मिट्टी के बर्तन में पकाया जाता है और बाटी के साथ प्रसाद के रुप में दिया जाता है.

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मंदिर में घंटी बांधने की परंपरा

तरकुलहा देवी मंदिर में हर साल चैत्र रामनवमी से मेले का आयोजन किया जाता है.

एक महीने तक चलनेवाले इस मेले में आनेवाले लोग मन्नत पूरी होने पर मंदिर परिसर में घंटी बांधते हैं.

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गौरतलब है कि इस मंदिर में हर साल भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है और सभी माता को प्रसन्न करने के लिए बलि की परंपरा का निर्वाह करते हुए अंग्रेजों की बलि नहीं बल्कि बकरों की बलि चढ़ाते हैं और प्रसाद के रुप में मिले मटन को खाकर खुशी-खुशी अपने घर लौट जाते हैं.

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