तात्या टोपे – अंग्रेज़ भारत व्यापार करने आये थे.
तत्कालीन भारतीय समाज और उसके कमजोर सत्ताधारियों को देख कर उन्होंने धीरे-धीरे देश के छोटे-छोटे भौगोलिक क्षेत्रों को अपने कब्ज़े में लेना शुरू कर दिया. देश उस समय एक इकाई के रूप में न हो कर अलग-अलग रियासतों में बंटा हुआ था. अलग-अलग क्षेत्रों के राजाओं और सामन्त, जागीरदारों की फूट का उन्होंने भरपूर फायदा उठाया.
अंग्रेजों की कूटनीतिक चालों को जानने के बाद कई देशभक्त राजा, सामन्त, जमीदार और अन्य कई क्षेत्रों के लोग देश भर से प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों का विरोध करने सामने आने लगे.
अंग्रेजों के ख़िलाफ़ हुए सामूहिक विद्रोहों से सबसे पहला विद्रोह सन 1857 के विद्रोह को माना जाता है. उस विद्रोह में सम्पूर्ण भारतवर्ष से अनेक लोगों ने सामने आकर अंग्रेजों का मुकाबला किया. उन्हीं सैकड़ों लोगों में से एक थे, तांत्या टोपे.
तात्या 1857 के विद्रोह के अग्रणी सूरमाओं में गिने जाते हैं. देशभक्ति और स्वाभिमान के पुजारी तात्या ने अपने अंतिम समय तक अंग्रेजों का डट कर सामना किया.
तात्या टोपे का शुरुआती जीवन
आज़ादी के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सेनानायकों में से एक तात्या टोपे का जन्म 1814 ईस्वी में पूना में हुआ था.
तात्या टोपे के बचपन का नाम रामचन्द्र पांडुरंग येवलेकर था. उनके पिता पांडुरंग येवलेकर और माता रुक्मिणी बाई थी. उनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के गृह विभाग में कार्यरत थे. लोग उन्हें प्यार से अन्ना साहब कह कर सम्बोधित करते थे. तत्कालीन दौर में अंग्रेज साम, दाम, छल-कपट सभी तरीकों से भारतीय रियासतों को हथियाते जा रहे थे. इसी कड़ी में उन्होंने पेशवा बाजीराव की गद्दी भी हथिया ली. जिसके कारण पेशवा को पूना छोड़ कर कानपूर के निकट बिठुर में आ कर रहना पड़ा.
बाजीराव के साथ-साथ पांडुरंग भी अपने परिवार को लेकर बिठुर आ गए. उस समय तांत्या की उम्र महज तीन साल थी.
तात्या टोपे बचपन से ही काफी साहसी और तीक्ष्ण बुद्धि वाले थे. उनकी परवरिश पेशवा के दत्तक पुत्रों और मोरोपन्त तांबे की पुत्री मनुबाई (झाँसी की रानी) के साथ हुई थी.
रामचन्द्र कैसे तात्या टोपे बना
वयस्क होने पर तांत्या को पेशवा ने अपने दरबार में मुंशी के तौर पर रख लिया था. अपने कार्यकाल के दौरान तांत्या ने एक कर्मचारी को भ्रष्टाचार करते हुए पकड़ा था. इससे प्रसन्न होकर पेशवा ने उन्हें आभूषणों से सुसज्जित एक टोपी देकर सम्मानित किया था. इस घटना के बाद से वह तांत्या टोपे के नाम से प्रसिद्ध हो गए.
अंग्रेजों की बढ़ती क्रूरता
1851 में पेशवा की मौत के बाद अंग्रेजों ने उनके दत्तक पुत्र नाना साहब को उनका उत्तराधिकारी मानने से मना कर दिया था. इसके साथ ही उन्होंने पेशवाई को मिलने वाली पेंशन भी बंद कर दी थी. इन सब से तांत्या के अंदर अंग्रेजों के प्रति रोष बढ़ता जा रहा था.
1857 के विद्रोह में तात्या टोपे की भूमिका
अंग्रेजों के खिलाफ़ बढ़ते असन्तोष ने लोगों को उनके खिलाफ़ विद्रोह करने के लिए खड़ा कर दिया. कानपूर में क्रांतिकारियों का नेतृत्व करते हुए तांत्या ने कानपूर पर अधिकार कर लिया. 20 हज़ार सिपाहियों के साथ तांत्या फिरंगियों पर कहर बन कर टूट पड़े थे. अंग्रेज सेनापति विन्धम और कैम्पवेल को कानपूर छोड़ कर भागना पड़ा था.
कानपूर में अंग्रेजों को शिकस्त देने के बाद तांत्या ने रानी लक्ष्मी बाई के साथ मिल कर मध्य प्रान्तों में अंग्रेजों के खिलाफ़ मोर्चा खोल दिया. बेतवा के युद्ध में सफलता न मिलने के बावजूद तांत्या निराश नहीं हुए. अपनी ताकत समेट कर लक्ष्मी बाई के साथ उन्होंने ग्वालियर की और कूच किया. यहां उन्होंने सिंधिया को परास्त किया. लेकिन ग्वालियर पर वो कब्ज़ा नहीं कर पाए.
ग्वालियर को अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज ने अपने अधिकार में ले लिया. यहां हुए भीषण युद्ध में लक्ष्मी बाई वीरगति को प्राप्त हो गई थी. तांत्या अंग्रेजों को चकमा देकर भाग निकलने में सफल हो गए थे.
मानसिंह के विश्वासघात से आये पकड़ में
1859 में सिंधिया के सामंत मानसिंह द्वारा विश्वासघात करने पर तांत्या अंग्रेजों की पकड़ में आ गये. भारत माता के इस वीर देशभक्त को 18 अप्रैल 1859 में फांसी पर चढ़ा दिया गया.
तात्या टोपे जैसे अनेक देशभक्तों ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम की नींव रक्खी थी. अपने प्राणों के भय से मुक्त होकर वतन की मिट्टी के लिए मर मिटने को तैयार रहने वाले ऐसे सपूतों ने सम्पूर्ण राष्ट्र में एक नई ऊर्जा का संचार किया था. इतिहास तात्या टोपे के अमर बलिदान को हमेशा याद करता रहेगा और हम समय-समय पर उनके जीवन से प्रेरित होकर मातृभूमि की सेवा के लिए आगे बढ़ते रहेंगे.
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