भारत

गंगा और यमुना सरीखी नदियों की हैरान कर देने वाली हकीकत

गंगा और यमुना सरीखी नदियों के पानी की गुणवत्ता में ज़रा भी सुधार किए बिना ही इसकी सफाई के नाम पर करोंड़ों रूपए खर्च करना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. अबतक यमुना में सफाई के नाम पर लगभग 1,062 करोड़ रूपए खर्च किए जा चुके हैं. वहीं, इसके अलावा दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सरकारें भी अपने स्तर से इस प्रयोजन में करोंड़ों रूपए खर्च कर चुकीं हैं. बड़े अफ़सोस की बात है कि इसके बावजूद भी यमुना में प्रदूषण घटने के बजाए और बढ़ गया है.

ध्यान रहे कि यमुना की सफाई के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की नाराज़गी का ये पहला मामला नहीं है. 1994 में भी सुप्रीम कोर्ट ने यमुना की सफाई के लिए अपने स्तर पर सक्रियता दिखाई थी. तब उसने एक अखबार में प्रकाशित खबर पर स्वतः संज्ञान लेते हुए मामला शुरू किया था. बाद में 12 अप्रैल, 2005 को जस्टिस वाईके सब्बरवाल और तरुण चटर्जी की पीठ ने कहा कि यमुना को स्वच्छ करने के लिए दिल्ली सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति ही नहीं है. 2005 में दिल्ली सरकार बिना ट्रीटमेंट के ही यमुना में गंदा पानी डाल रही थी.साथ ही हज़ारों खारखाने भी ठीक यही कर रहे थे.

1994 से प्रदूषित पानी यमुना में प्रवाहित किया जा रहा है. यमुना ही नहीं देश की सभी नदियों को अनियोजित शहरीकरण मैला कर रहा है. नदियों की गंदगी के कारण देश को हर साल सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में अरबों रुपयों का नुकसान हो रहा है. इसी बीच थर्ड वर्ल्ड सेंटर फॉर वाटर मैनेजमेंट के अध्ययन के अनुसार देश में कुल 10 फीसदी गंदे जल को सही ढंग से एकत्रित करके, परिशोधन करके नदियों और झीलों में डाला जा रहा है.

वैसे तो पानी के प्रदूषण की समस्या दशकों से जारी है. हालांकि, राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव, नौकरशाही की लालफीताशाही, जनता की उदासीनता, मीडिया की सामाजिक सराकारों से जुड़े मुद्दे उठाने की अनिच्छा और भारी पैमाने पर व्याप्त भ्रष्टाचार आदि तमाम घटकों ने समस्या को विकराल बनाने में योगदान दिया है. आज नदियों का प्रदूषण एक राष्ट्रीय समस्या में तब्दील हो गया है.

यहां सवाल उठता है कि इतनी भारी-भरकम रकम खर्च करने के बाद भी गंगा-यमुना इतनी प्रदूषित क्यों हैं? नदी के पानी की गुणवत्ता का प्रबंधन कोई राकेट विज्ञान नहीं है. भारत में विशेषज्ञता, प्रौद्योगिकी और निवेश के लिए राशि उपलब्ध है. फिर क्यों हज़ारों-करोंड़ों रूपए सीधे-सीधे नाले में बहा दिए जाते हैं. इसके अनेक कारण हैं और इनमें सबसे प्रमुख कारण है राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव, दखलंदाजी और आपसी शत्रुता. उदहारण के लिए, केद्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें होने के कारण दोनों एक-दूसरे के कामों में अड़ंगे लगाते रहते हैं. इसके अलावा, हर स्तर पर योजना के क्रियान्वयन की अक्षमता और भ्रष्टाचार भी गंगा-यमुना की सफाई में बाधक रहें हैं.

गंगा और यमुना की सफाई योजनाओं में दो बेहद महत्वपूर्ण पहलुओं की अनदेखी की जाती रही है. पहला- अगर नदी के प्रदूषण को दूर करना है तो योजना दूरगामी होनी चाहिए. अगले 20 सालों में भारत की आबादी में जबरदस्त विस्फोट देखने को मिलेगा. आज के मुकाबले 2030 में भारत बिलकुल अलग देश होगा. तबतक भारत में जल संकट विस्फोटक रूप धारण कर लेगा. इसलिए योजनाएं भी वर्तमान हालात के साथ-साथ भविष्य को ध्यान में रखकर बनानी चाहिए. वहीं, भारत को अन्य देशों के उदाहरणों से सीख लेनी चाहिए. छठे दशक में सिंगापुर की नदियां भी गंगा-यमुना की तरह ही प्रदूषित थीं. तब सिंगापुर के तात्कालिक प्रधानमंत्री ली कुआन ये ने नदियों के स्वच्छीकरण का बीड़ा उठाया. नौकरशाही को नदियों की सफाई के लिए 10 साल का समय दिया और पर्याप्त बजट रखा. समयसीमा के भीतर ही कार्य पूरा हो गया. इसका प्रमुख कारण ये था कि सरकार ने नदी किनारे बसे तमाम लोगों का पुनर्स्थापन किया. परिणामस्वरूप, सिंगापुर की नदियों के तट अब आर्थिक गतिविधियों के प्रमुख केंद्र बन चुके हैं.

इससे स्पष्ट हो जाता है कि नदियों की सफाई न केवल संभव है बल्कि गंदगी में रहने के बजाए स्वच्छता में रहना काफी सस्ता भी है. यमुना औउर गंगा की सफाई की वर्तमान योजना को देखते हुए पूरे निश्चय के साथ भविष्यवाणी की जा सकती है कि जबतक इनमें आमूलचूल परिवर्तन नहीं होता, तबतक ये नदियां और भी अधिक प्रदूषित होती रहेंगी.

Devansh Tripathi

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