60 के दशक में कोलकाता के नक्सलबाड़ा इलाके में कुछ गाँव वालों ने मिल कर वहां के ज़मीदार की हत्या कर दी थी और उसकी वजह यह थी कि वह ज़मीदार गाँव वालों पर इतना अत्याचार कर चूका था कि उनके पास उसे मारने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं बचा था.
इसी गाँव में जन्मा यह समूह आगे चल कर “लाल सलाम” और नक्सलियों के नाम जाना जाने लगा.
आज के इस दौर में महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उड़ीसा, बिहार और आंध्रप्रदेश जैसे भारत के लगभग 6 राज्य नक्सलवाद की समस्या से जूझ रहे हैं. आये दिन कोई न कोई घटना होती हैं और कई मासूम और निर्दोष लोग मौत के मुह में चले जाते हैं. नक्सली समस्या से हर दिन औसतन 10-12 जवान मारे जाते हैं और नक्सलियों के मारे जाने की गणना करना सरकार तो बस खानापूर्ति के रूप में फाइलों में कर लेती हैं.
इस लेख को लिखने का मकसद नक्सलियों द्वारा की जा रही हिंसा को समर्थन देना बिलकुल नहीं हैं, लेकिन इस समस्या की जड़ को न अभी तक लोगो ने समझा हैं न मिडिया ने और सरकार से उम्मीद तो न के बराबर ही हैं. भारत का प्रशासन तंत्र अन्दर से इतना खोखला हो चूका हैं, इतना सड़ चूका हैं कि नक्सलियों को उनसे बात करने में कोई दिलचस्पी ही नहीं बची हैं.
नक्सलियों ने भी यह मान लिया हैं कि न तो यह प्रशासन कभी सुधरा हैं और न कभी सुधरेगा इसलिए नक्सलियों ने खुद को उन इलाकों की सरकार घोषित कर दिया हैं, जहाँ उनकी पकड़ बहुत मजबूत हैं. आंध्रप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ धुर जंगली इलाके जहा बुनियादी सुविधाओं के नाम आज भी बिजली, पानी और घर भी नहीं पहुचे हैं वहां नक्सली अब सरकार बन कर पुरे इलाके को अपने कब्जे में ले रखे हैं. यदि कोई नागरिक चाहकर भी सरकार की ओर जाना चाहे तो नहीं जा सकता हैं.
नक्सलियों और सरकार के बीच अब आम आदमी फंस चूका हैं. यदि वह सरकार की तरफ से बोलता हैं तो नक्सली उन्हें मारने की बात करते हैं और यदि वह नक्सलियों के समर्थन में खड़ा होता हैं तो पुलिस और अतिरिक्त सैन्य बल की नज़र में आ कर अपनी जान से हाथ धो बैठता हैं.
मसला कोई भी हो लेकिन हर बार पिसता आम आदमी ही हैं.
इस समस्या की शुरुआत से ही सरकार की अनदेखी ने इसे नासूर बना दिया वही नक्सलियों द्वारा की जा रही हिंसक घटनाएं किसी भी तरह से न्याय संगत नहीं हो सकती हैं. हर समस्या का हल हिंसा नहीं हो सकती हैं, लेकिन फिर भी रोज़ मिडिया में किसी न किसी व्यक्ति के मरने की खबर से चैनल और अखबार भरे पड़े होते हैं. 40 साल से चली आ रही इस समस्या में शायद ही किसी को दिलचस्पी हो क्योकि न तो नक्सली अपना रास्ता छोड़ने को तैयार हैं न ही सरकार उनसे बात करने में कोई रूचि दिखा रही हैं और इसका पूरा असर इन इलाकों में रहने वाले उन लोगो पर पड़ रहा हैं जो इतने भोले हैं कि उन्हें तो अपना नाम भी लिखना नहीं आता हैं.
कभी कभी यह सोचकर भी कपकपी छुटती हैं कि हमारा देश किस ओर जा रहा हैं, इसका भविष्य क्या होगा हैं और आने वाले पीढ़िय क्या सिख पाएंगी इन सब से.