फिल्में वैसे तो होती हैं समाज को राह दिखाने के लिये.
कहानियां समाज से निकलती हैं और समाज को उसी का चेहरा पेश करती हैं. इस सदी के आरम्भ से ही भारतीय सिनेमा ने एक नए युग में पदार्पण किया, जहाँ पर नायक प्रधान आदर्शवादी फिल्मों से इतर यथार्थवादी, वैचारिक फिल्में आयीं, जिन्होंने समाज के स्याह पक्ष को भी उजागर किया.
किंतु एक फीचर फिल्म के लिये, बड़ा बजट चाहिये होता है. युवाओं के लिये, एक फीचर फिल्म का बजट प्राप्त करना एक बड़ी बात होती है. ऐसे में युवाओं के पास एक बेहतर विकल्प रहता है कि वे अपनी प्रतिभा का लोहा शार्ट फिल्मों के जरिये मनवायें. भारत में इस माध्यम को वो मुकाम नहीं मिल पाया है, जो उन्हें मिलना चाहिये था.
आज इन फिल्मों को एक निश्चित वर्ग ही देखता है और इनकी सराहना करता है किंतु इन फिल्मों में किसी विषय को इतने बेहतर रूप से परोसा जाता है, जितना कि कोई एक फीचर फिल्म कई बार नहीं परोस पाती है. बड़ी फिल्म का मकसद मात्र पैसे कमाना होता है. कोई भी बड़ा फिल्म निर्देशक, वहां चांस नहीं ले सकता है.
शार्ट फिल्म, अगर शार्ट फिल्म हैं तो वह मात्र अपनी समय अवधि के कारण ही छोटी होती हैं. विषय के आधार पर हम उसे लघु फिल्म घोषित नहीं कर सकते हैं. डायरेक्शन के आधार पर हम लघु फिल्म को लघु फिल्म नहीं बोल सकते हैं, अगर कोई फिल्म इस तरह की फिल्म है तो वह केवल अपनी अवधि के आधार पर शार्ट फिल्म है और एक सच्चाई ये भी है कि ये फिल्में समाज के सामने बेहतर रूप से आईना पेश करती हैं. कम समय में ये फिल्में, बेहतर एवं वजनदार विषय को रखती हैं.
सरकार और अन्य जिम्मेदार लोग इस ओर ध्यान क्यों नहीं दे रहे हैं? इसकी पड़ताल हमें खुद करनी होगी. हमारे सिनेमा में ऐसे बहुत से युवा और कुछ एक माने हुये, फिल्म निर्देशक हैं जो लघु फिल्मों को भारत में उनकी पहचान दिलाने के लिये, संघर्ष कर रहे हैं, इसकी एक झलक हम नीचे पेश कर रहे हैं-
अश्विन कुमार
अश्विन भारतीय सिनेमा के एक स्वतंत्र फिल्म निर्देशक हैं. साल 2005 में इन्होनें एक शार्ट फिल्म बनाई, फिल्म का टाइटल था- लिटिल टेररिस्ट. यह फिल्म 103 अलग- अलग देशों के फेस्टिवल में गई और इन्हीं 103 में से, 14 फेस्टिवल में अवार्ड जीतने में भी कामयाब रही. इसके साथ-साथ यह फिल्म आस्कर के शार्ट फिल्म विभाग में भी नोमिनेट हुई थी. लेकिन कहीं न कहीं यह हमारा दुर्भाग्य ही रहा कि फिल्म को वो मुकाम नहीं मिल पाया, जिसकी वह हकदार थी.
आज अनुराग कश्यप और सुधीर मिश्रा जैसे फिल्म निर्माता ऐसी फिल्में बना रहे हैं और युवाओं को बनाने के लिये भी बोल रहे हैं. अनुराग तो कई बार कुछ अच्छे प्लेटफार्म पर इस सिनेमा को सही महत्व देने की बात पर अपनी बात पुरजोर रूप से रख चुके हैं.
अनुराग कश्यप
युवाओं को शार्ट फिल्मों का निर्माण करना चाहिये. इनको बनाने से फिल्म निर्माण की कई बातों को युवा खुद सीख सकते हैं. आस-पास देखें तो कुछ फेस्टीवल हो रहे हैं, इन सभी में इनको हिस्सा लेना चाहिये. ये विषय के आधार पर बेहद गंभीर होती हैं और शार्ट फिल्मों को लेकर देश को अब गंभीर हो जाना चाहिये. ज्ञात हो कि खुद कश्यप जी, कई शार्ट फिल्में बना चुके हैं. इनकी ‘ए-टैन टू महाकाली’ से शायद सभी प्यार करते हों. इसके अलावा- ‘डेट डे आफ्टर एवरी डे’ ने भी काफी सराहना प्राप्त की थी.
सत्यजीत रे:
सत्यजीत रे की कई शार्ट फिल्में हम इंटरनेट पर देख सकते हैं. यहां तक की भारतीय सिनेमा का प्रारंभ भी शार्ट फिल्मों से ही हुआ. बहुत से लोग कहते हैं कि इनको बनाकर, रोटी का तो जुगाड़ किया जा सकता है लेकिन बटर और दूध खरीदने लायक पैसों का जुगाड़ नहीं हो पा रहा है. इस ओर सरकार को कोई पहल करनी चाहिये तथा ज्यादा से ज्यादा फिल्म फेस्टिवलों का आयोजन करना चाहिये. शार्ट फिल्में बेहद गंभीर विषयों को सामने लाने का काम कर रही हैं. आज आवश्यकता है कि इनको दर्शकों का सहयोग मिलना प्रारंभ हो और सरकार ऐसे युवाओं के लिये साल में कई फिल्म फेस्टीवलों का निर्माण करे, जिससे की समाज को बेहतर सिनेमा और बेहतर प्रतिभाओं का मिलना शुरू हो सके.
पुनीत प्रकाश-
दिल्ली में जन्में प्रकाश जी आज बेशक अपनी फीचर फिल्म बना रहे हैं जो इन दिनों पोस्ट प्रोडक्शन में है लेकिन पुनीत जी ने एक बेहतरीन शार्ट फिल्म का निर्माण किया था, जो ‘मोमबत्ती’ के नाम से आयी थी. फिल्म की थीम एक बच्चे के चारों ओर घुमती है, जिसके पिता पुलिस विभाग में थे और अपने कर्तव्य को निभाते हुये, उनकी मौत हो जाती है. फिल्म को कांन्स फिल्म फेस्टिवल, लार्ज फिल्म फेस्टिवल (मुंबई) के साथ कई अन्य जगहों पर अपना जादू बिखेरते हुये, देखा जा चुका है. इसके अलावा इन्होनें 7 अन्य शार्ट फिल्म एवं 1 डाक्यूमेंटरी फिल्म का भी निर्माण किया है.
नीजो जानसन और रोहित गाबा-
नीजो जानसन केरल की पवित्र भूमि से वास्ता रखते हैं और कभी अपनी जमीं-जमाई 60 हजार की नौकरी को नजर-अंदाज कर, फिल्म बनाने का अपना सपना पूरा कर रहे हैं. रोहित ने अपनी फिल्मी दुनिया का सफरनामा, सुभाष घई के साथ, बतौर सहायक निर्देशक शुरू किया. इसके बाद ‘स्लमडाग’ आस्कर विनर फिल्म में भी, ये सहायक निर्देशक ही थे. ये दोनों बालीवुड के मशहूर फिल्म निर्माता अनुराग कश्यप के साथ, सन् 2012 में फिल्म बना चुके हैं. रोहित ने अपना सफर बेशक बड़े निर्देशकों के साथ किया, किंतु वहां से निकलकर, इन्होनें शार्ट फिल्मों का निर्माण किया तथा समाज को कई गंभीर विषयों से भरी फिल्में दीं. इन दोनों के द्वारा बनाई गई फिल्म ‘कमेरा’ एक अवार्ड विनिंग फिल्म रही है. आज ये दोनों इस बात से बेहद दुखी हैं कि शार्ट फिल्मों को लेकर भारत में बहुत ज्यादा कुछ नहीं किया जा रहा है. शार्ट फिल्में बेहद गंभीर विषयों को हमारे सामने लेकर आती हैं. समाज के अंदर जितनी ज्यादा शार्ट फिल्में बनेंगी, उतना ही सच भी सामने निकलकर आयेगा.
जहां बाहर के कुछ देशों में शार्ट फिल्मों के लिये, अलग से चैनल्स का निर्माण हो चुका है, वहीं हमारे देश में आज सेंसर बोर्ड सिनेमा पर बहुत से प्रतिबंध तो लगा रहा है लेकिन इस और ध्यान नहीं दे रहा है.
अगर इस ओर जल्द ही ध्यान नहीं दिया गया तो शायद वह दिन दूर नहीं होगा, जब शार्ट फ़िल्में अपनी पहचान खो चुकी होगीं.
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