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अठारवीं सदी के आरंभ में चेचक से बचने के लिए टीका लगवाने की एक प्रथा भारत से आरंभ होकर अफगानिस्तान व तुर्किस्तान के रास्ते यूरोप में खासकर इंग्लैंड में पहुँची थी, जिसे वेरियोलेशन का नाम दिया गया था.
वर्ष 1767 में हॉवेल ने एक विस्तृत विवरण लिखकर इंग्लैण्ड की जनता को वेरियोलेशन के संबंध में आश्वस्त कराने का प्रयास किया गया है.
अब मुद्दे पर आते हुए ध्यान दीजिये कि ऐसा बोला जाता है कि सन 1802 में एक बड़े अंग्रेजी वैज्ञानिक ने चेचक का टीका खोज निकला था. जबकि सच यह है कि यह चेचक का टीका भारत के एक चरक आयुर्वेद में कुछ 13 सदी में ही निजात कर लिया गया था.
सबूत के लिए पढ़िए धर्मपाल जी की पुस्तक- ‘भारत का स्वधर्म’
धर्मपाल जी लिखते हैं कि 13 वी सदी के आसपास ही भारत के कई हिस्सों में चेचक का टीका लगाया जा रहा था. यह एक देशी प्रथा थी, जो देशी दवाओं पर आधारित थी. भारत के चरक संहिता में ही इसका जिक्र आता है.
लेकिन तब अंग्रजों ने बड़ी सोच समझकर एक चाल चली. उसने जैसे भारत के वस्त्र उद्योग को तबाह करने के लिए चाले चली, इसी तरह से सन 1802 से कुछ पहले ही बंगाल प्रेसिडेंसी में भारतीय तरीके से बनी चेचक की दवा पर रोक लगा दी जाती है. (कोई भी व्यक्ति इस देशी टीके का इस्तेमाल नहीं कर सकता था.) आप तब के इतिहास में यह जांच कर सकते हैं. जब देशी टीके पर रोक लगी तो उसकी वजह से चेचक की बीमारी भयानक रूप से फैली.
पूरे भारत में हमारे देशी चेचक के इलाज पर रोक लगा दी गयी थी. जबकि चेचक तो पहले भी भारत में होता था लेकिन हमारे पास उसकी दवा मौजूद थी. किन्तु अंग्रेजों के आने के बाद ही यह बीमारी इतने खतरनाक रूप में ना जाने क्यों फैलती है. इसकी जांच आप खुद कीजिये.
तभी जब पूरे भारत में चेचक का प्रकोप था तो अंग्रेज कहते हैं कि हमने चेचक का टीका खोजा और भारत को इस बीमारी से निजात दिला दिया.
असल में यह चेचक का टीका जो आज अंग्रेजों का बताया जाता है वह एक भारतीय खोज है इसे आप चरक संहिता में देख सकते हैं.
और ज्यादा सबूत के लिए पढ़ें
वर्ष 1839 में राधाकान्त देव ने भी इस चेचक का टीका का विस्तृत ब्यौरा देने वाली पुस्तक लिखी है. राधाकान्त देव के अनुसार टीका लगाने का काम ब्राम्हणों के अलावा, आचार्य, देबांग (ज्योतिषी), कुम्हार, सांकरिया (शंख वाले) तथा नाई जमात के लोग भी करते थे। बंगाल में माली समाज के लोग और बालासोर में मस्तान समाज के तो बिहार में पछानिया समाज के लोग, मुस्लिमों में बुनकर और सिंदूरिये वर्ग के लोग टीका लगाते थे.
इसी पुस्तक में लिखा गया है कि वर्ष 1798 में सर जेनर ने गाय के थन पर निकले चेचक के दानों से वैक्सीन बनाने की विधि ढूँढ़ी तो अंग्रेजों ने खूब हल्ला किया और अपने लाभ के लिए भारतीय देशी टीके पर रोक लगा दी गयी थी. जो भी लोग भारतीय देशी टीके को लगवा रहे थे उन्हें जेल में डाल दिया गया था.
इस तरह से अंग्रेजों ने झूठ का सहारा लेते हुए यह बोला कि चेचक का टीका, उन्होंने निजात किया है. असल में 1802 में जब यह टीका आया तो उससे पहले भी भारत में चेचक की दवा मौजूद थी.
(यह लेख लेखक स्वर्गीय धर्मपाल जी की पुस्तक भारत का स्वधर्म और लेखिका लीना मेहेन्दले के बताये आकंड़ों के आधार पर लिखा गया है. आप पुस्तक भारत का स्वधर्म जरूर पढ़ें. )
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