दुनियाभर में कई धर्म और जाति के लोग पाए जाते है।
सभी धर्म अपनी खास मान्यताओं और रिवाजों के लिए अपनी एक अलग पहचान रखते है।
ऐसा ही एक धर्म है सिख धर्म।
बाकी धर्मों में जहाँ लोगों के अलग-अलग सरनेम होते वहीं सिख धर्म में सरनेम की जगह पुरुषों के नाम के साथ ‘सिंह’ लगाया जाता है, तो महिलाओं के नाम के साथ ‘कौर’ लगाने का रिवाज़ है। हालाँकि सिख धर्म में शुरू से ये रिवाज़ नही था, बल्कि बाद में इसे शुरू किया गया था।
आइये जानते है आखिर क्यों सरनेम की जगह सिंह और कौर लगाया जाता है।
सिंह और कौर क्यों?
सिख धर्म के अनुसार ऐसा माना जाता है कि सन 1699 के आसपास भारतीय समाज में जातिप्रथा का इस कदर बोलबाला था कि ये एक-दूसरे के लिए अभिशाप बन गया था। जातिवाद की वजह से सिखों के दसवें गुरु ‘गुरु गोविन्द सिंह’ काफी चिंतित रहा करते थे। वे चाहते थे कि किसी भी तरह से ये कुप्रथा ख़त्म की जाए। इसलिए उन्होंने 1699 में वैशाखी का पर्व मनाया।
उस दिन उन्होंने अपने सभी अनुयायियों को एक ही सरनेम रखने का आदेश दिया, ताकि इससे किसी की जाति का पता ना चले और जातिप्रथा पर लगाम लग सके। इसलिए गुरु गोविन्द सिंह ने पुरुषों को ‘सिंह’ और महिलाओं को ‘कौर’ सरनेम से नवाज़ा।
कहा जाता है कि तभी सिख धर्म को मानने वाले पुरुष अपने नाम के साथ सिंह और महिलाएं अपने नाम के साथ कौर लगाती है।
इतना ही नहीं सिंह और कौर सरनेम लगाने का भी एक खास अर्थ भी होता है।
सिंह और कौर में सिंह का आशय होता है ‘शेर’ तो कौर का आशय होता है ‘राजकुमारी’।
गुरु गोविन्द सिंह जी चाहते थे कि उनके अनुयायी सिर्फ एक धर्म के नाम से जाने जाये ना कि अलग-अलग जाति से। इसलिए आप देखंगे कि सिख धर्म में जातिप्रथा ना के बराबर है लेकिन बाकी धर्म जैसे कि हिन्दू और मुस्लिम में जातिप्रथा की स्थिति काफी भयावह है।