भगवान शिव का हिन्दू मतावलम्बियों में एक विशेष स्थान है.
शिव संहारक भी है, शिव पालक भी है.
शिवरात्रि का त्यौहार शिव भक्तों के लिए एक विशेष त्यौहार है. देश के ही नहीं विश्व के अलग अलग कोने में बने शिव मंदिरों में शिवरात्रि का पर्व हर्षोल्लास से मनाया जाता है.
शिवरात्री के दिन भक्त उपवास रखते है और शिव की उपासना करते है.
पौराणिक ग्रंथों में शिवरात्रि से जुडी अनेकों कथाएं है. देश के अलग अलग भागो में शिवरात्रि के महत्व से जुडी अलग अलग कथाएं है.
आज हम आपको शिवरात्रि पर्व मनाने के पीछे जुडी ऐसी ही एक कथा के बारे में बताएँगे.
एक बार देवताओं और असुरों के बीच समुद्र मंथन किया गया. क्षीर सागर के मंथन के लिए भगवान् विष्णु ने कछुए का अवतार लेकर स्तम्भ को आधार दिया.
वासुकी नाग को सागर मंथन की रस्सी बनाया गया और स्तम्भ के शीर्ष पर ब्रह्मा विराजमान हुए.
नाग के एक छोर को देवताओं ने तो दुसरे छोर को असुरों ने पकड़ा और सागर का मंथन शुरू किया. जैसे जैसे सागर मंथन शुरू हुआ समुद्र से अलग अलग वस्तुएं बाहर आने लगी.
देवता और दानव आपस में चीज़ें बांटने लगे.
जब अमृत निकला तो दोनों में बहस होने लगी की कौन अमृत पीयेगा. ऐसे में भगवन विष्णु ने छल से मोहिनी रूप धर असुरों को आसक्त कर दिया और देवताओं को अमृत पिला दिया.
अमृत के बाद निकला ब्रह्मांड का सबसे तीव्र और खतरनाक विष हलाहल. अब हलाहल को ग्रहण करने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ ना देवता ना असुर.
हलाहल इतना भीषण विष था कि जो कोई भी इसके सम्पर्क में आये उसकी मृत्यु सुनिश्चित थी. लेकिन समस्या ये भी थी कि जब तक कोई इस विष को ग्रहण नहीं करता तब तक समुद्र मंथन का अगला उत्पाद नहीं निकाला जा सकता.
ऐसे में जब सबने हार मान ली तो भगवान् शिव ने हलाहल को ग्रहण करने का निर्णय लिया. शिव ने हलाहल पी लिया लेकिन उसे अपने गले से नीचे नहीं उतरने दिया.
भीषण विष के प्रभाव से भगवान शिव का गला नीला पड़ गया. इसके बाद भगवान शंकर को नीलकंठ नाम दिया गया.
भगवान शिव के हलाहल पीने से देवता और असुर दोनों की समस्या का निवारण हो गया और समुद्र मंथन में आई बाधा टल गयी.
शिव के नीलकंठ बनने को और देवता और दानवों के कष्ट हरने को उत्सव के रूम में मनाया गया. आज भी शिवरात्रि उस घटना के उपलक्ष्य में मनाई जाती है.
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