एक अफगान शेरशाह सूरी का उरूज किसी करिश्मे से कम ना था.
शेरशाह सूरी के पिता हरियाणा की छोटी सी जागीर नारनौल के जागीरदार थे. बचपन में उनका नाम फरीद खान था. एक शिकार के दौरान बिहार के मुगल गवर्नर बहार खान पर शेर ने हमला कर दिया था. नौजवान अफगान फरीद ने उस शेर को मार गिराया और उसे नया नाम मिला, ‘शेरशाह’. शेर शाह ने दिल्ली का तख़्त अपनी बदौलत हासिल किया था. उसकी बादशाहत जाते-जाते बची थी.
1540 से 1545 के बीच दिल्ली सल्तनत में एक ही नाम के चर्चे गूंजा करते थे, दिल्ली का तख्त भी उस शहंशाह की हुकूमत के आगे कम था, अपनी ताकत और हौंसलों के बदौलत ही उसने दिल्ली का तख्त अपने नाम किया था। शेर से एक गर्वनर की हिफाज़त करने के बाद उसे नाम मिला था शेरशाह, जी हां, शेरशाह सूरी ।
यूं तो शेरशाह ने दिल्ली पर अपनी हुकूमत काबिज़ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन उसके दिल्ली की गद्दी पर काबिज़ होने के कुछ ही सालों बाद एक ऐसा युद्ध हुआ जिसमें उसके लिए अपनी हुकूमत को बचाए रखना बहुत ही मुश्किल हो गया।
दिल्ली के तख़्त पर कब्जे के महज चार साल के भीतर एक कांटे की जंग में मानो शेरशाह सूरी की गद्दी छिनते हुए बची।
बंगाल और फिर मालवा जीतने के बाद शेरशाह ने मारवाड़ की तरफ कदम बढ़ाए। मारवाड़ को जीतकर वो अपनी बादशाहत को और मज़बूत बनाना चाहता था।
इसके लिए शेरशाह अपनी 80 हजार घुड़सवारों की सेना और 40 तोपों के साथ जोधपुर से 90 किलोमीटर दूर गिरी-सुमेल पर डेरा डालकर बैठ गया। शेरशाह के आने की खबर जैसे ही मारवाड़ के शासक को मिली वो भी अपनी सेना के साथ वहां डेरा डालकर बैठ गया।
लगभग एक महीने तक यही स्थिति चलती रही लेकिन उसके बाद शेरशाह को परेशानी शुरू हो गई, अपनी बड़ी सेना के लिए राशन का इतंज़ाम करने में शेरशाह असमर्थ था। शेरशाह इस बात को समझ गया था कि वो लंबे वक्त इन हालातों में अपनी सेना के साथ सर्वाइव नहीं कर पाएगा और बिना राशन पानी के वो अपनी सेना को युद्ध के लिए तत्पर भी नहीं रख पाएगा, ऐसे में उसने एक नई तरकीब अपनाई।
इस चाल के तहत शेरशाह सूरी ने फूट डालने की रणनीति अपनाई। उसने एक खत के ज़रिए अपनी प्लानिंग को अंजाम दिया और इस खत में उसने मालदेव के कुछ सरदारों को वफ़ादारी बदलने के लिए शुक्रिया अदा किया था। ये खत किले के अंदर पहुंचते ही सकपकाहट शुरू हो गई और उसके बाद मालदेव अपनी सेना को लेकर जोधपुर की तरफ जाने लगा क्योंकि उसे ऐसा महसूस हुआ कि कहीं वो अपनी जोधपुर की सत्ता को ना खो दे।
मालदेव दस हजार घुड़सवारों की सेना को जेता और कुम्पा के नेतृत्व में पीछे छोड़कर जोधपुर चले गए। जेता और कुम्पा वीर सेनापति थे जिन पर वहां की जनता भी बहुत विश्वास करती थी।
इसके बाद 4 जनवरी 1544 को कुम्पा और जेता ने शेरशाह सूरी की सेना पर हमला कर दिया, शेरशाह इस युद्ध को लेकर बहुत आश्वासित था कि जीत उसी की होगी क्योंकि उसके पास सैन्य बल अधिक है लेकिन कुम्पा और जेता के नेतृत्व में राजपूतों ने मुकाबले की शक्ल बदल कर रख दी, शेरशाह की सेना कम होने लगी और वो भी मैदान छोड़ने की तैयारी करने लगा तभी उसे खबर मिली कि कुम्पा और जेता मारे गए हैं और इस तरह उसने हारे हुए मुकाबले को जीत लिया लेकिन फिर भी उस दिन 10,000 राजपूतों ने शेरशाह की सेना को लोहे के चने चबवा दिए।