इस लेख ज़िन्दगी की एक सच्ची कहानी है.
ये शर्मनाक कहानी मुंबई के भांडुप इलाके की है. एक ओर सारा देश कृष्ण जन्माष्टमी मना रहा है. मुम्बई की सड़के ग्वालो से भरी पडी है. ऊँची ऊँची मटकियां फोडी जा रही है. चारो तरफ कृष्ण के गीतों पर लोग झूम रहे है. वही दुसरी तरफ भांडुप के शांती नगर के एक भीडभाड सड़क पर 70 साल के उमाशंकर शुक्ल अन्न के एक एक दाने को तरस रहे है.
एक वक्त था. अभी दो दिन पहले ही वे कम से कम 60 लाख रुपयों के मालिक थे.
और ये एक वक्त है – विश्वास ने उन्हें भिखारी बना दिया और दर दर की ठोकर खाने के लिए मजबूर कर दिया.
सुप्रसिद्ध कम्पनी टाटा में काम करने वाले उमाशंकर शुक्ल 2 महीने पहले ही रिटायर हुए है. रिटायरमेंट पर उन्हें कम्पनी की तरफ से 20 लाख रुपए भी मिले.
लेकिन उन रुपयों पर गंदी नज़र जमाए एकलौते बेटे सुजल ने अपने पिता उमाशंकर शुक्ल को घर से निकाल दिया.
उमाशंकर शुक्ल की सिर्फ इतनी गलती है कि वे रिटायर हो चुके है. उनके पास अब कोई काम नहीं. उनका खर्चा कौन उठाएगा और सुजल की पत्नी सुरेखा को ससुर जी पसंद नहीं.
ये कहानी एक समर्पित पिता और लालची बहु बेटे की है.
उमाशंकर शुक्ल अपनी पत्नी के साल 1983 में मुंबई शहर आए और टाटा कम्पनी में काम करना शुरू कर दिया. उमाशंकर शुक्ल कुछ सालो तक किराए के मकान में रहे और फिर एक एक पैसा जोड़ खुद का छोटा सा घर खरीदा. इसी घर में 1985 में सुजल ने बेटे के रूप में जन्म लिया.
कम पैसे कमाते हुए भी उमाशंकर ने अपने बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई करवाई और समाज में उठने बैठने के काबिल बनाया.
उम्र के हिसाब से एक पढी-लिखी और सुदर लडकी से सुजल की शादी करवाई. अब सुजल को एक साल का बेटा भी है.
लेकिन दुःख की बात ये है कि उमाशंकर शुक्ल की पत्नी अब इस दुनिया में नहीं है.
हमारे पड़ोस के मिश्रा जी बता रहे थे कि सुजल की पत्नी को कुछ महीनो पहले एक बड़ी बीमारी ने घेर लिया था, जिसके इलाज के लिए उमाशंकर शुक्ल ने अपनी कम्पनी से 2 लाख रुपए क़र्ज़ के तौर पर लिए थे, जो कि रिटायरमेंट के समय कम्पनी ने काट भी लिए.
अपनी पुरी ज़िन्दगी भर उमाशंकर शुक्ल ने जमीन आसमान एक कर दिया ताकि उनका परिवार सुखी से जीवन व्यतीत कर सके.
शुक्ला जी ने घर खरीदा, बच्चे को पाला-पढाया, बच्चे की शादी की, बहु का इलाज करवाया और अंत में रिटायरमेंट में मिले सारे पैसे भी बहु-बेटे के नाम कर दिए.
अब आलम ये है कि शुक्लाजी को दर दर की ठोकरें खानी पड़ रही है.
ज़ालिम बेटे ने अपने पत्नी के कहने पर अपने पिता को घर से निकाल दिया है. अब शुक्ला जी हर उस दरवाजे पर जा रहे है, जहां से उन्हें मदद की आस है.
2 दिन गुज़र चुके है, शुक्ला जी एक छोटी सी पोटली लेकर सडको की खांक छान रहे है और मन ही मन पछता रहे है – “शायद मैंने भी अपनी वृद्ध अवस्था के लिए कुछ पैसे रख लिए होते तो ठीक होता…”
उमाशंकर शुक्ला जी के तरह बहोत ऐसे माता-पिता है जो अपने बच्चो के जुल्म का शिकार है और सोच सोच पछता रहे ही कि शायद हमने भी कुछ पैसा जुटा रखा होता.
आजकल के बच्चो का कोई भरोसा नहीं है है भाई !
वक्त कब बदले पता नहीं. ज़रूरी नहीं है कि हर बच्चा श्रवण ही हो.
आप भी शुक्ला जी की तरह पछताना नहीं चाहते तो अपने वृद्धावस्था के लिए अभी से पैसे जुटाना शुरू करिए. आपके पास पैसे होंगे तो आपके बच्चे आपका ख्याल रखेंगे ही.
धन्यवाद !
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