अल्लामा इकबाल – एक इलाहबाद के शायर ने जो सन 1930 में कहा था उसे भी शायद नहीं पता था की वो तकरीर इंसानी तारीख के सबसे बडे और खूनी पलायन की बुनियाद रखने जा रही थी.
इस तकरीर में उस शायर ने कहा था “मैं पंजाब, नार्थवेस्टफ्रंटियर, सिंधऔर बलूचिस्तान को एक संयुक्त राज्य के रूप में देखना चाहता हूँ. ब्रिटिश राज के तहत या फिर उससे बिना भी एक खुद-मुख्तार नार्थ-वेस्ट भारतीय मुस्लिम राजु ही मुसलमानो का आखिरी मुस्तकबिल है”.
यह शायर और कोई नहीं बल्कि पाकिस्तान और हिंदुस्तान के उन चुनिंदा शायरो में से एक थे जिन्हे आज भी शान से याद किया जाता है. इनका नाम था अल्लामा इकबाल.
इनका सपना था की मुस्लिमों को भारत के भीतर ही एक मुस्लिम राज्य प्राप्त हो. उनका ये सपना पूरा तो हुआ लेकिन वो मुल्क के बटवारे को देखने के लिए जिंदा नहीं बचे. आज भी उन्हे पाकिस्तान में “मुफ्फकिर-ए-पाकिस्तान’के नाम से याद किया जाता है.
‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियो रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहा हमारा’
1904 में इतनी खूबसूरत बात कहने वाले इकबाल को 26 वर्ष में ऐसा क्या हुआ जो वो देश के बटवारे की नींव रखते देखे गए. इस बात का जवाब केवल उनके जीवन में घटित उतार चडाव ही दे सकते हैं.
तो आइए जानते हैं आखिर ऐसा क्या हुआ था जो अल्लामा इकबाल के नजरिये में इतना बदलाव आ गया.
साल 1904 में इकबाल ने एक और बहुत ही खूबसूरत तरना लिखा था “सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा”. इस तराने ने उन्हे खूब शौहरत दी, इसके अगले वर्ष ही इकबाल लंदन रवाना हो गए.
इसके बाद इकबाल सन 1908 में हिंदुस्तान वापिस लौटे. तब तक वह वो इकबाल नहीं थे जो सन 1905 में देश से रवाना हुए थे. अपने इंग्लैंड दौरे पर ही इकबाल के साथ कुछ ऐसा हुआ जिसके बाद उनके विचारो में बदलाव शुरू हो गया.
सन 1938 में स्थानीय वकील मोहम्मद आलम ने सिविल एंड मिलेट्रिगजेट के खिलाफ मान हानि का मुकदमा दर्ज किया था. जिस सिलसिले में पंडित जवाहर लाल नेहरू लाहौर गए थे. इसी बीच जब उन्हें पता चला की इकबाल भी लाहौर में ही हैं और काफी बीमार हैं तो वह उनसे मिलने जावेदमनिल नाम की इमारत में पहुंचे. एक अनौपचारिक मुलाकात होने के बावजूद दोनो का सियासी मसलो पर बात करना लाजमी था. नेहरू लगातार इकबाल को कहते रहे की मुसलमानों को देश की आजादी के लिए कंधे से कंधा मिलकर लडना चाहिए.
अल्लामा इकबाल ने कहा की अगर कांग्रेस हिंदू-मुस्लमान को एक देखना चाहती है तो उन्हे पहले मुस्लमानो के अधिकारो को सुरक्षित करना चाहिए. इकबाल अपने आखिरी दिनो में टूनेशनथ्योरी के पैरोपकार के रूप में स्थापित हो चुके थे.
अल्लामा इकबाल को टूनेशन का सपना हकीकत में भले ही मुकमल हो गया हो लेकिन उनके लिए वह सपना, सपना ही रह गया था. सन 1938 में 21 अप्रैल को अल्लामा इकबाल ने पठानकोठ में अपनी आखिरी सांस ली और दुनिया को अलविदा कह गए.
यह ब्रिटिश विचार ही थे जिन्होने इकबाल के मन में अपना घर बना लिया था और वह अपने ही देश में अपने लोगों को असुरक्षित महसूस करने लगे थे.