अगर “मज़बूरी का नाम महँगी दाल” का नया जुमला बनाये तो कुछ अचरज नहीं होगा, क्योकि आज कल दाल के भाव जिस आसमान को छू रहे हैं उससे तो यही लगता हैं कि दाल की कीमत तो अब अन्नपूर्णा देवी की पहुच के भी बाहर जा रही हैं.
हर भारतीय को रोज़ाना औसतन 65 ग्राम दाल का उपभोग ज़रूरी होता हैं और यदि इस मात्रा में ज़रा भी कमी आती हैं हैं तो इंसान का अस्वस्थ और कुपोषण से ग्रस्त होना आम बात हो जाती हैं, लेकिन आज की बात की जाये तो महंगाई के कारण हर व्यक्ति औसतन 25 से 40 ग्राम दाल ही उपभोग कर पा रहा हैं.
भारत के कई इलाके ऐसे हैं जहाँ इसी दाल की कमी चलते झाबुआ और कई आदिवासी क्षेत्रों में 2009 से अभी तक मृत्यु के कई मामले सामने आ चुके हैं.
दरअसल भारत में हर साल दाल का उत्पादन लगभग 180 लाख टन के आसपास होता हैं और इतनी ही मात्रा में खपत भी होती हैं, लेकिन फिर भी सरकार हर साल भारत देश में 30-40 लाख टन दाल का आयत भी करती हैं. सरकार की इस सोच के पीछे की वजह जब भी पूछी जाये तो, जवाब यह मिलता हैं कि भारत के पास अभी भी इतनी उन्नत तकनीक नहीं आई हैं जिससे अपने देश में दाल के उत्पादन में वृद्धि की जा सके.
इस सवाल से एक बात और निकलती हैं कि ब किसानो से दाल खरीदी ही नहीं जाती तो उत्पादन बढ़ा कर करना भी क्या हैं? अभी कुछ दिन पहले शरद पवार ने दाल के विषय में कहा कि ‘हमें दाल का उत्पादन अफ्रीका, उरग्वे जैसे देशो में जाकर करना चाहियें और वहाँ से उन्हें वापस अपने देश में आयात करना चाहियें.
शरद पवार के इस बेतुके सुझाव के पीछे उनकी क्या वजह थी यह तो समझ से परे हैं क्योकि अगर भारत सरकार दुसरे देशों में जाकर उत्पादन के लिय खर्च करने हेतु सहमत हैं तो फिर अपने ही देश के किसानो को उचित दाम देने में उनका दिल क्यों छोटा हो रहा हैं?
दाल के दाम की पूरी सच्चाई क्या है ?
दाल की कीमत बढ़ने की मुख्य वजह असल में कम उत्पादन नहीं बल्कि जमाखोरी हैं.
उत्पादन की बात करे तो भारत में दाल की असल कीमत 45 रु. प्रति किलोग्राम होती हैं. अगर इसमें प्रोसेसिंग आदि की लागत जोड़ भी दिया जाये तो दाल की कीमत 60 रु. तक ही जाएगी, अगर इसमें और मुनाफ़ जोड़ भी दिया जाये तो 70 रु. से अधिक नहीं होना चाहियें. लेकिन अभी दाल की कीमत 190 रु. चल रही हैं. दाल की बढ़ती कीमतों के पीछे एक बड़ा खेल जमाखोरों और ब्रांडेड कंपनीयों का भी हैं और आज कि परिस्थिति में दाल की ऊँची कीमत की मुख्य वजह तो यही हैं.
महाराष्ट्र में अभी कुछ दिन पहले महाराष्ट्र सरकार ने इन इलाकों में कई जगह छापेमारी कर के लगभग 70लाख टन दाल की स्टॉकिंग कर रहे लोगों को पकड़ा और उन्हें गिरफ्तार किया गया.
जमाखोरी के साथ-साथ भारत में काम करने वाली टाटा, महिंद्रा, ईज़ी डे और रिलायंस जैसी कंपनिया भी दाल के व्यापार में उतर चुकी हैं और जमकर मुनाफ़ाखोरी करने में लगी हैं. ई-शॉपिंग और सुपर मार्केट के इस ज़माने में आज हर कोई मॉल जाकर खरीददारी करता हैं, जहाँ एक किलो दाल की कीमत अच्छी सजावट और बेहतरीन पैकिंग के बाद 200 रु.प्रति किलो में बेची जाती हैं, जबकि उनकी असल कीमत 70 रु. भी नहीं होती हैं.
यदि ऐसे रिटेलर दाल को 100 से 120 रु. की कीमत में बेचे तो भी यह सारे लोग फ़ायदे में रहेंगे लेकिन हम उपभोगता ही 200 रु. देने के लिए तैयार है, तो किसी और पर महंगाई का दोष क्या दिया जाये?
माल्स और सुपरमार्केट में इतनी ऊँची कीमत पर मिलने वाली दाल को देखकर छोटी दुकान वाले व्यापारी भी दाल की कीमत बढ़ाने में पीछे नहीं हटते हैं और कीमतों में मनमानी कर के मुनाफ़ा कमाते हैं लेकिन बाज़ार के हर स्तर पर तकलीफ में सिर्फ आम आदमी ही पड़ता हैं.
दुनिया के कई देशो में दाल को मुर्गे-मुर्गियों के दाने के रूप में इस्तेमाल किया जाता हैं. वहां चने की दाल को “चिकन पी” कहा जाता हैं और अरहर की दाल को “पिजन पी” के नाम जाना जाता हैं लेकिन भारत जैसे देश में दाल रोज़मर्रा के भोजन का अहम् हिस्सा है. यहाँ भोजन में दाल का इस्तेमाल नियमित रूप में किया जाता हैं.
खैर यह बात अपने-अपने खाद्य परंपरा के अनुसार सही भी हो सकती हैं, लेकिन सरकार से सवाल तो अब भी वही हैं कि भारत देश में दाल कब तक आम आदमी की पहुँच में मैं कब तक आ पायेगी और वो भी अपनी पुरानी कीमत में, क्योकि सरकार से सभी को उम्मीद हैं.
भले ही आम जनता महंगाई के नाम पर सरकार को रोज़ खरी खोटी सुनाये लेकिन इस समस्या का निवारण भी तो सरकार के हाथ में ही हैं, बस देखना यह हैं कि कब इसका निवारण होता हैं.
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