रसखान की भक्ति – आज धर्म और मज़ब के नाम पर पूरी दुनिया में विवाद, युद्ध हो रहे है.
हमारे देश में भी आज़ादी के समय हुए बंटवारे के बाद से ही हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच एक दीवार सी बनने लगी थी.
मज़हब के नाम पर अवसरवादियों ने उस समय से लेकर आज तक लगातार लोगों को भड़काने का काम किया है.
हिन्दू समझता है इस्लाम बुरा है, मुसलमान समझता है कि हिन्दू उसका दुश्मन है. इस बात को और हवा मिलती है जब कुछ मूर्खों और नफरत फ़ैलाने वाले तत्वों के झांसे में आकर लोग बहक जाते है और एक दुसरे के दुश्मन बन जाते है.
लेकिन सच तो ये है कि दुनिया का कोई भी मज़हब किसी से लड़ना नहीं सीखाता. हर मज़हब एक ही बात सिखाता है और वो है इंसानियत और भाईचारा.
रसखान की भक्ति –
आज हम अपने चारों तरफ देखते है तो धर्म के नाम पर लड़ाने वाली कहानियां बताने वाले ही मिलते है. ऐसी कहानियां और ऐसे लोग बहुत कम मिलते है जो दोनों मजहबों का सम्मान और उनसे प्यार करने की बातें करते हों.
आज हम आपको एक ऐसे ही संत रसखान की भक्ति की कहानी बताने जा रहे है जो मुसलमान होते हुए भी कृष्ण के भक्ति में ऐसे डूबे कि हिन्दू और मुसलमान सब कुछ भूल कर बस एक नेक इंसान कहलाये.
रसखान का जन्म 15वीं सदी के मध्य में हुआ था. जन्म के समय उनका नाम सैय्यद इब्राहीम था. बचपन में ही वो कृष्ण भक्त बन गए थे.
गोस्वामी विठ्ठलनाथ से दीक्षा ग्रहण करने के बाद रसखान कृष्ण की नगरी वृन्दावन में ही बस गए.
रसखान की भक्ति के बारे में कई कहानियां प्रचलित है. जिसमे से सबसे अनोखी कहानी के अनुसार रसखान को एक व्यापारी के पुत्र से प्रेम हो गया था. हिन्दू से प्रेम करने की वजह से रसखान को भला बुरा कहा जाता था लेकिन इन सब बातों का रसखान पर कोई असर नहीं पड़ता था.
वो तो बस प्रेम में डूबे रहते थे. एक बार उन्होंने किसी को ये कहते हुए सुना कि उपरवाले की भक्ति भी वैसे ही करो जैसे रसखान उस हिन्दू से करते है तभी मुक्ति और शांति मिल सकती है.
उसके बाद रसखान वृन्दावन चले गए. जहाँ वो अपनी मृत्युपर्यंत रहे. आज भी कृष्ण की जन्मभूमि गोकुल के निकट रसखान की समाधी है. गोकुल, वृन्दावन और मथुरा में आज भी रसखान का नाम भगवन कृष्ण के सबसे बड़े भक्तों में लिया जाता है.
रसखान ने बहुत से दोहे और कविताओं का भी सृजन किया. रसखान की रचनाये भगवान कृष्ण की लीलाओं के बारे में है.
आज भी कितनी ही बार ऐसा होता है कि जो लोग कट्टरता में अंधे होकर आपस में झगड़ते है वो भी जाने अनजाने रसखान के दोहों को पढ़ते या सुनते रहते है.
रसखान जैसे संतों के बारे में ही शायद कहा गया है “जात ना पूछो साधू की “
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