तो कांग्रेस और उनके युवराज को आखिरकार बाबासाहेब आंबेडकर की याद आ ही गयी.
पिछले 6 दशकों में कांग्रेस ने सिर्फ नेहरु-गाँधी को याद किया, उनके मेमोरियल बनवाये, और सिर्फ यही परंपरा आगे बढाई. और स्वतंत्रता पूर्व सभी सेनानीयों को कांग्रेस भूल गयी.
जून 1915 में बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री ली. बाबासाहेब के पोस्ट ग्रेजुएशन की एक सदी पूरी होने पर कांग्रेस ने एक बड़ा आयोजन किया. पर अगर आप पिछले साठ सालों में नज़र डालें, तो कह सकते हैं की कम से कम साधारण परिस्तिथियों में तो ये दिन भी आम दिनों की तरह आ कर चला जाता.
पर इस बार राहुल गाँधी न सिर्फ बाबासाहेब आंबेडकर के गाँव महू गए, पर कांग्रेस ने इसको एक बड़े आयोजन में तब्दील भी किया.
राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का शुक्रिया अदा करना चाहिए की उन्होंने कांग्रेस को आंबेडकर और साथ – साथ अन्य स्वतंत्रता सेनानीयों को याद करना याद दिलाया.
अब कांग्रेस एक बार फिर इतिहास के पन्ने खंगालने लगी है और सेनानियों को ढूंढने लगी है. और कम से कम नेहरु- गाँधी वंश परंपरा से बाहर निकल रही है. मोदी ने सरदार बल्लभ भाई पटेल के साथ अन्य स्वतंत्रता सेनानी को याद करने की कोशिश की. और इसी के साथ नेहरु-गाँधी वंश परंपरा पर एक नए सिरे से बहस भी शुरू कराया.
एक वक़्त था जब कांग्रेस नेहरु और उनके वंश के नाम पर चल जाती थी, पर अब वो वक़्त ख़त्म हो चुका है. और ऐसी राजनीति भी इतिहास का हिस्सा हो चुकी है. तो अब कांग्रेस के पास भारत के भूले बिसरे नेताओं को याद करने के अलावा और कोई चारा नहीं है.
साथ ही राहुल गाँधी ने आंबेडकर को याद कर अपना दलित कार्ड खेला. महू में आंबेडकर के सपने को अपना सपना बता कर पेश किया. आंबेडकर को याद करने के कई फायदे हैं. अगर हम पिछले वर्षो में देखे तो सिर्फ आंबेडकर ही एक ऐसे नेता हैं, जो एक बड़ा वोट बैंक इकठ्ठा कर सकते हैं. ना ही ब्राहमणों का कोई ऐसा नेता है और ना ही ओबीसी का.
अगर हम इतिहास की तरफ देखे तो दलित और अल्पसंख्यकों ने निष्ठा से सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस को वोट दिया था. और इसी के सहारे कांग्रेस बिहार, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में जीतती रही. पर 1990 से ये वोट बैंक बसपा और सपा जैसी क्षेत्रीय पार्टीयों की तरफ चला गया.
कुछ साल पहले तक बहुजन समाज पार्टी दलित वोट्स पर राज करती थी. उत्तर प्रदेश,दिल्ली, और राजस्थान के कुछ हिस्से में दलित वोट बसपा को ही मिलते थे. पर 2014 के लोकसभा चुनाव में ये उत्तर प्रदेश से पूरी तरह गायब हो गयी. दिल्ली में इनका वोट शेयर प्रतिशत कम हुआ और राजस्थान में 2013 में ही सफाया हो गया.
इस खालीपन का फायदा भाजपा उठा रही है. उत्तर प्रदेश में सभी 17 सीट जो अनुसूची जाती और जनजाति के लिए रिज़र्व थी, उनपर भाजपा ने जीत हासिल की. अब भाजपा दलित नेता आंबेडकर के “हिंदुत्व” झुकाव को हाईलाइट कर रही है. और बिहार में जीतन राम मांझी जो दलित नेता माने जाते हैं उनके साथ टाई अप करने का सोच रही है.
कांग्रेस को राष्ट्रीय राजनीति में एक बार फिर से जगह बनाने के लिए दलित वोट की जरूरत है. बिना दलित वोट के वो उत्तर प्रदेश और बिहार में जीतने का सोच भी नहीं सकती.ये वो राज्य हैं जिसकी जीत लोकसभा चुनाव को कंट्रोल करती है.
इसलिए राहुल गाँधी को आंबेडकर की याद आई है. राहुल का दलित एजेंडा संसद के मानसून सत्र में सामने आएगा. जब राहुल “प्रमोशन कोटा” और “ अत्याचार निरोध कानून” की मांग करेंगे.
महू में राहुल ने दलित कार्ड खेलते हुए कहा कि “ दलितों को प्राइवेट सेक्टर में भी जॉब मिलना चाहिए, दलितों को किसी कंपनी का CEO भी बनने का मौका मिलना चाहिए”. इस बयान के बाद लगता है की कांग्रेस अपना सबसे पसंदीदा आरक्षण कार्ड अब प्राइवेट सेक्टर में खेलना चाहती है
तो अब दलित वोट की लड़ाई शुरू हो चुकी है.
अब हमें ऐसे कांग्रेस को देखने के लिए तैयार रहना चाहिए जो की “आंबेडकर” के बारे में “नेहरु-गाँधी” से ज्यादा बात करेगी.
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