लोकतंत्र में संख्या बल का अपना महत्व होता है और शायद धार्मिक जनसंख्या के आंकड़ों को बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के चुनावों से जोड़ने की कोशिश की जाती है. लेकिन मुस्लिम जनसंख्या से जुड़े सवालों को उठाने से पार्टियां परहेज़ करती नज़र आती हैं. उनको न जाने क्यों लगता है कि इससे कहीं मुसलमान नाराज़ न हो जाएं और उनके वोट न कट जाएं पर सवाल पैदा होता है कि इतना मुसलमान पर अविश्वास क्यों किया जाता है? क्या मुसलमान भारत के हित में नहीं सोचते? क्या वे देश की समस्याओं के समाधान में कोई योगदान नहीं करना चाहते? क्या मुसलामानों का वोट इतना ज़रूरी है कि उसे लेने के लिए देश, समाज और स्वयं मुसलमानों के दूरगामी हितों के बारे में नहीं सोचा जाना चाहिए. दुर्भाग्य से बुद्धिजीवी वर्ग भी ऐसे प्रश्नों से बचता रहता है. उसे लगता है कि कहीं उस पर साम्प्रदायिक, भाजपाई और संघ परिवार से जुड़े होने का आरोप न लगे. सवाल है कि फिर इन प्रश्नों पर स्वस्थ चर्चा कैसे हो?
पाकिस्तान से धार्मिक आधार पर बंटवारे के बावजूद हमने सेक्युलर संविधान अपनाया. उसी संविधान से मुस्लिम समाज को अल्पसंख्यक का दर्जा और तमाम मौलिक अधिकार मिले जिससे आज मुसलमान तरक्की कर रहा है लेकिन जब कभी इस्लाम और संविधान के प्रति निष्ठा का प्रश्न आता है तो मुस्लिम समाज कुछ ऐसे संकेत देता है जिससे लगता है कि संविधान के मुकाबले इस्लाम के प्रति उनकी निष्ठा कहीं ज़्यादा है. ऐसे में हिंदू समाज को चिंता होती है. इन चिंताओ को दूर कैसे किया जाए? राजनीतिक स्तर पर वोट-बैंक की राजनीति से हमें फुर्सत मिले तब न.
देखा जाए तो आज सामाजिक स्तर पर हिंदू-मुस्लिम मेलजोल में बहुत कमी आई है. लेकिन उसकी भरपाई करना न किसी पार्टी के एजेंडे में है और न ही हिंदुओं या मुस्लिमों की तरफ से कोई पहल हो रही है. सामान्यतः वे अपने-अपने समुदाय के परिवारों से मिलते हैं लेकिन एक-दूसरे के परिवारों से नहीं. वहीं, समाज में कोई हिंदू-मुस्लिम साझा मंच नहीं है जिससे एक समुदाय की चिंताएं दूसरे समुदाय तक पहुंच ही नहीं पातीं और कोई चर्चा खुलकर नहीं होती जिससे पारस्परिक तनाव बढ़ता है और छोटी-सी चिंगारी भी सांप्रदायिक हिंसा को जन्म दे देती है.
साम्प्रदायिक हिंसा के लिए भाजपा और संघ को उत्तरदायी ठहराने का फैशन सा हो गया है. इतना सरलीकरण कर हम एक शतुरमुर्गी समाधान प्राप्त कर लेते हैं लेकिन समस्या की तह तक नहीं पहुंचते. जिस तरह देश के विभिन्न राज्यों में मुस्लिम बस्तियां विकसित हुईं हैं क्या वो चिंता का कारण नहीं हैं? असम में मुस्लिम आबादी 34.22 फीसद है लेकिन वहां के आठ जिले ऐसे हैं जहाँ मुस्लिम आबादी 50 से 70 फीसद के बीच है. उत्तर प्रदेश में मुस्लिम जनसंख्या 19.2 फीसद है, लेकिन वहां के छह जिले ऐसे हैं जहाँ मुस्लिम जनसंख्या 40-50 फीसद पहुंच गई है. क्या इस तरह के जनसंख्या घनत्व से सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा नहीं मिलता. ऐसी स्थिति में फिर कैसे मुस्लिम अल्पसंख्यक हो सकते हैं?
कई शहरों में कुछ मुस्लिम बस्तियां जनसंख्या विस्फोट से त्रस्त हैं तो कई साम्प्रदायिक तनाव के लिए जानी जाती हैं. वहीं, कई शहरों में मुस्लिम बस्तियों का विस्तार करने हेतु धनी मुस्लिम आसपास की हिंदू संपत्तियां खरीद रहें हैं. वैसे भी आज मुस्लिम बस्तियों के बदतर हालात किसी से छिपे नहीं हैं. ऐसी बस्तियां कई बार गैर-कानूनी गतिविधियों के लिए भी इस्तेमाल हो जाती हैं. उनका प्रयोग न केवल समाज विरोधी तत्व बड़ी आसानी से कर लेते हैं बल्कि उन्हें मुस्लिम युवाओं को कट्टर बनाने वाली नर्सरी के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं.
ज्यादातार पार्टियों ने मुसलमानों को भारतीय नागरिक के रूप में पनपने के अवसर दिया ही नहीं और उन्हें सदैव अल्पसंख्यक और पीड़ित होने की मानसिकता में रखा है. कुछ साल पहले अलीगढ मुस्लिम युनिवर्सिटी के कुलपति लेफ्टिनेंट जनरल जमीर-उद्दीन शाह ने कहा था कि मुस्लिमों को अब भेदभाव की शिकायत बंद कर देनी चाहिए और अपनी शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए. मुस्लिम समाज को बताया जाना चाहिए कि उनकी समस्याएं भी वही हैं जिनसे संपूर्ण भारतीय समाज जूझ रहा है. उन्हें भारतीय समाज के अभिन्न अंग के रूप में अपनी समस्याओं को परिभाषित करने और अपने समुदाय के अंदर के अंतर्विरोधों से निपटने की चुनौतियों को खुले मन से स्वीकार करना होगा.