पी. टी. उषा – एशियन गेम्स में अच्छा प्रदर्शन कर टीम इंडिया वापस लौट आई है। इतने अच्छे प्रदर्शन के बाद हर कोई खिलाड़ियों को राशि या उपहार दे रहा है। सरकार, नौकरी और पैसे दे रही है। लेकिन ये सारे इनाम जीते हुए खिलाड़ियों को दिये जा रहे हैं। लेकिन जो कोई मेडल नहीं जीत कर आए हैं, उनका क्या?
मालूम नहीं।
ऐसा ही होता है। जो खिलाड़ी कोई मेडल हासिल नहीं कर पाते हैं उनके बारे में किसी तरह की चर्चा नहीं होती है। जो मेडल जीतते हैं उनके बारे में हर जगह चर्चा होती है। जबकि जीतने से पहले ये कैसे जी रहे थे, कैसे अपने खेल के लिए प्रैक्टिस कर रहे थे, इसकी भी चर्चा नहीं होती है। केवल जीत और जीत मायने रखती है और वह भी अब ही मायने रखने लगी है। कुछ सालों पहले तक तो यह भी नहीं होता था। हम ये बाते ऐसे ही हवा में नहीं कह दे रहे हैं। बल्कि इंडिया की उड़न परी ही खुद यह बात कह रही है।
पी. टी. उषा
पी. टी. उषा – पिलावुल्लकंडी थेक्केपराम्बील उषा (जन्म 20 मई 1964).
इनका नाम देश का बच्चा-बच्चा जानता है। ये भारतीय ट्रेक और फील्ड एथलिट हैं। केरल की हैं और 1979 से एथलीट से जुड़ी रही हैं। वह भारत के सबसे अच्छे एथलीट्स में शुमार की जाती हैं। उन्हें अक्सर “क्वीन ऑफ इंडियन ट्रेक एंड फील्ड” कहा जाता है। इस एथलीट को अपने करियर में अगर किसी चीज का मलाल है तो वह यह कि ये एक भी ओलंपिक मेडल नहीं जीत पाईं। इस अफसोस के लिए वह सरकार को बराबर का जिम्मेदार मानती हैं।
1984 में लॉंस एंजेलेस ओलंपिक्स में पहुंची थी सेमीफाइनल में
पी. टी. उषा ने 1980 मास्को के ओलंपिक्स में भाग लिया था लेकिन उनका प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा था। लेकिन 1982 में, नई दिल्ली में हुए एशियाड में, उन्होंने 100 मीटर और 200 मीटर में सिल्वर मैडल जीता। परंतु एक साल बाद ही, कुवैत में हुए एशियन ट्रेक और फील्ड चैम्पियनशिप में उषा ने 400 मीटर में गोल्ड मेडल जीता। इसके बाद उषा 1984 में लॉंस एंजेलेस ओलंपिक्स में शामिल हुई। जहां उन्हें खुद से पदक जीतने की काफी उम्मीद थी लेकिन वह जीत नहीं पाई। वह सेमीफाइनल में पहंची थी और छठवें स्थान पर रही थीं। उनकी इस हार ने 1960 में हुई मिल्खा सिंह की असफलता याद दिला दी थी। उस हार की याद उषा को अब भी सालती है।
चावल का दलिया खाकर दौड़ी थी ओलंपिक में
जहां अन्य देशों के खिलाड़ी के फिटनेस के लिए उनकी खानपान का काफी ध्यान रखा जाता है वहीं भारत में ऐसा नहीं है। खिलाड़ियों के खानपान की तो दूर की बात है, उनके रहने पर भी ध्यान दे दिया जाए तो भी बहुत बड़ी बात होगी। इस बात की पुष्टि हाल ही में पी. टी. उषा द्वारा दिए गए एक बयां से होती है।
पी. टी. उषा ने पुरानी यादों की परतें खोलते हुए बताया कि कैसे लास एंजीलिस ओलंपिक 1984 के दौरान उन्हें खेलगांव में खाने के लिए चावल के दलिए के साथ अचार पर निर्भर रहना पड़ा था। वह इस ओलंपिक में एक सेकंड के सौवे हिस्से से पदक से चूक गई थी। उषा ने कहा कि बिना पोषक आहार के खाने से उन्हें कांस्य पदक गंवाना पड़ा था।
एक सेकंड के सौवे हिस्से से चूकी थीं पदक से
उन्होंने कहा,‘‘ओलंपिक में मैं आचार और दलिया खाकर दौड़ी थी जिससे मेरे प्रदर्शन पर असर पड़ा और मेरे शरीर में दौड़ के आखिरी 35 मीटर में ऊर्जा बनी नहीं रह सकी।’’ उषा 400 मीटर बाधादौड़ के फाइनल में रोमानिया की क्रिस्टियाना कोजोकारू के साथ ही तीसरे स्थान पर पहुंची थी लेकिन अंतिम निर्णायक लैप में पीछे रह गईं। उषा ने इक्वाटोर लाइन मैगजीन को दिये इंटरव्यू में कहा,‘‘हम दूसरे देशों के खिलाडिय़ों को ईष्या के साथ देखते थे जिनके पास पूरी सुविधायें थी। हम सोचते थे कि काश एक दिन हमें भी ऐसी ही सुविधायें मिलेंगी।’’
उन्होंने कहा,‘‘मुझे याद है कि केरल में हम उस अचार को कादू मंगा अचार कहते हैं । मैं भुने हुए आलू या आधा उबला चिकन नहीं खा सकती थी । हमें किसी ने नहीं बताया था कि लास एंजीलिस में अमेरिकी खाना मिलेगा । मुझे चावल का दलिया खाना पड़ा और कोई पोषक आहार नहीं मिलता था। इससे मेरे प्रदर्शन पर असर पड़ा और आखिरी 35 मीटर में ऊर्जा का वह स्तर बरकरार नहीं रहा।’’
एथलीट में भारत जीते ओलंपिक मेडल
फिलहाल पी. टी. उषा अपना खुध का कोचिंग संस्थान चला रही हैं और उनका सपना है की ओलंपिक में कोई एथलीट मेडल जीते।
ये सपना तो भारत का खुद का भी है। उम्मीद करते हैं कि उनका ये सपना सच होगा।
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