घर के बुजुर्ग भगवान का रूप होते हैं. अकेले किसी कोने में बैठे हमारे दादा जी सारा दिन क्या सोचते रहते हैं, मुझे इसकी कोई खबर नहीं थी.
फिर एक दिन मैं पूछ ही लेता हूँ, आप किसको याद करते रहते हो दादा जी. जो जवाब मुझको मिला, उसकी मुझे उम्मीद नहीं थी. दादा जी बोलते हैं, “बेटा पूरा दिन ना तो लिख सकता हूँ, ना टीवी देखने का दिल करता है, ये बोलने वाले पंछी भी, दोपहर में चुप हो जाते हैं.
अब कोई दोस्त भी नहीं, जिसको कुछ लिखकर भेज सकूं और जवाब के इंतजार में कुछ वक़्त बीत सके. क्या मेरे लिए कहीं से एक ग्रामोफ़ोन और उसके कुछ रेकार्ड्स ला सकते हो क्या? और वो भी ना मिले तो एक पुराना रेडियो ही ले आना, जिस पर मेरे ज़माने के गीतों के साथ, मेरे ज़माने की बातें भी आती हों.
मुझको तब एहसास हुआ की बात तो सच है. आज दादा जी कहाँ सुन सकते हैं, अपनी बातों को? आजकल तो नये वाले रेडियो पर भी, नई बातें आती हैं. ज़माना बदल गया, पर लोग तो वो आज भी ज़िंदा हैं, जो उस दौर की आदत रखते हैं. ग्रामोफ़ोन का मिलना तो चलो आसान है पर उसके रेकार्ड्स कहाँ मिलेंगे? रेडियो मिल जायगा पर उनके दौर की बातें करने वाले वक्ता अब कहाँ मिलेंगे? अब तो आज के दौर का म्यूजिक भी कितना बदल गया है.
हमारे घरों में रखा ग्रामोफ़ोन अब धूल पकड़ रहे हैं. ग्रामोफ़ोन चुप हो चुके है. अब तो हाथ में फ़ोन आ गए, लैपटॉप आ गये, तरह-तरह के म्यूजिक सिस्टम आ गये, अब म्यूजिक भी हर किसी का अलग हो गया. एक दौर था जब सारा घर एक साथ बैठ कर, संगीत के मजे लेता था. चित्रहार और रंगोली का इंतज़ार हम सभी करते थे. रात को दादा जी अपने ट्रांसजीसटर पर सभी को समाचार सुनाते थे. आज दादा जी तो हैं, पर उनके वाले म्यूजिक यन्त्र नहीं रह गये हैं.
दादा जी के मनोरंजन में, दो मुख्य हथियार होते थे, ग्रामोफ़ोन और पुराना ट्रांसमीटर.
ग्रामोफ़ोन
भारत में पहला ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड 1902 में बनाया गया था. 1898 में गौहर जान ने पहला रेकॉर्ड भारत के लिए बनाया था. आज़ादी के वक़्त तक ग्रामोफ़ोन भारत में बहुत आम सा हो गया, बेगम अख्तर जी और कुमार गन्धर्व जी जैसे लोगों के रेकॉर्ड्स खूब सुने जा रहे थे. दादा जी कितने प्यार से एक-एक कला को संभाल कर रखते थे, जैसे की ना जाने ग्रामोफ़ोन और दादा जी में क्या करार हुआ था. महफ़िल सजा करती थी, गीत और ग़ज़ल के शब्दों पर चाय की प्याली के साथ गंभीर बातचीत हुआ करती थी. ग़ज़ल से लेकर ठुमरी तक सब बजा करता था यहाँ. रफ़ी जी के गीत होते थे, असली हिन्दुस्तानी घरानों की आवाज होती थी. आज आपके दादा जी अगर कभी ग्रामोफ़ोन पर कोई गीत सुन लें तो ‘ख़ुशी’ आसुओं के जरिये सामने जरुर आ जायगी, क्योकि अब ग्रामोफ़ोन और उसके रेकॉर्ड्स का दौर कहीं खो गया है.
ट्रांसजीसटर
ट्रांसजीसटर को हम रेडियो के नाम से ज्यादा जानते हैं. भारत की आज़ादी में रेडियो का बड़ा योगदान रहा है. “बहनों और भाईयों आप सुन रहे हैं”, इस वक़्त में अमीन सयानी की आवाज पूरा भारत एक साथ सुनता था. इनके गीतमाला कार्यक्रम के दौरान गलियाँ खाली हो जाती थीं. मुकेश जी से लेकर लता जी के गाने घंटों दादा जी के कानों में गूंजते रहते थे. वो क्या दौर था जब दादा जी के गीतों के वीडियो नहीं होते थे, पर उस ट्रांसजीसटर को सुनकर ही सब आँखों के सामने आ जाता था. आर. डी. बर्मन और रफ़ी जी के म्यूजिक उन दिनों खूब सुने जाते थे. धीरे-धीरे वक़्त ने करवट बदली और ट्रांसजीसटर का वक़्त भी चला गया. आज रेडियो का वक़्त आ गया और खत्म हो गया गीतमाला का सफ़र. नये रेडियो पर नये वक्ता आ गये और दादा जी अकेले रह गये.
आप अब सोच सकते हैं कि कैसे हमारे दादा जी, अपना वक़्त बिताते होंगे. अकेले बैठे पूरा दिन ना जाने क्या सोचते रहते हैं? कई बार जब गलियों या किसी गार्डन में, जब हम दादा जी को रोज अपने दोस्तों के साथ बैठा देखते हैं तो बोलते हैं कि ये रोज क्या बातें करते होंगे? आप यकीन मानिये वो बेमतलब की बातें सिर्फ इसलिए करते हैं ताकि बस अपना अकेलापन दूर भगा सकें.
महसूस करो, आपके पास मोबाइल्स और कंप्यूटर और टेलीविजन ना हो तो आप क्या करेंगें? तब आप समझ जाएंगें दादा जी के म्यूजिक यंत्रों का महत्व.
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