भारत में शायरी के इतिहास के प्रगतिशील विचारक माने जाते हैं असरार उल हसन खान यानि मजरूह सुल्तानपुरी ।
उन्हें ना जेल का खौफ लिखने से रोक सका और ना ही उन्होंने कभी अपनी लेखनी में किसी की मुदाखलत को पसंद किया। वो शख्स जिसने भारत की शायरी और बॉलीवुड के गीतों को एक अलग अंदाज़ किया।
कहानी बस इतनी ही नहीं है। शब्दों की अदायगी और उनकी समझ मजरूह सुल्तानपुरी साहब में पैदाइश के बाद शुरु हो गई थी। जब महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे बड़े कांग्रेस पाटी के नेताओं के नेतृत्व में आजादी की जंग लड़ी गई थी तब 1919 में 1 अक्टूबर को यूपी के आजमगढ़ में एक सिपाही के घर मजरूह पैदा हुए। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि राजपूत पढ़ने के लिए नहीं लड़ने के लिए पैदा होते थे।
इश्क में गया काम
शायर बनने से पहले उन्होंने टांडा में हकीमी का काम भी किया है। यहीं से उन्हें शायरी का शौक लग गया और यह नौजवान शायर वहां के तहसीलदार की बेटी के इश्क में पड़ गया जिसकी उसे बिलकुल भी इजाजत नहीं थी। इसका नतीजा ये हुआ कि उसे अपनी हकीमी छोड़कर सुल्तानपुर वापिस लौटना पड़ा और उनका प्यार यहीं पर फुस्स हो गया।
1945 में वह एक बार जिगर मुरादाबादी के साथ एक मुशायरे में शामिल होने मुंबई आए थे। उस मुशायरे में कई फिल्म मेकर्स भी थे जिनमें अब्दुल राशिद कारदार भी थे। मुशायरे में मजरूह साहब ने अपनी मुशायरी पढ़ी और उन्हें बहुत तारीफें मिलीं। इसके बाद कारदार ने उन्हें अपनी फिल्म शाहजहां के लिए गीत लिखने को कहा।
मजरूह ने 1946 में शाहजहां के लिए पहला गीत लिखा था और उनका पहला गाना था – जब दिल ही टूट गया.. हम जी के क्या करेंगें।
नेहरू ने भेजा जेल
मजरूह सुल्तानपुरी के बोल बहुत क्रांतिकारी भी थे। उन्होंने देश के मौजूदा हालात पर भी अपनी कलम से काफी कुछ लिखा था जिसके लिए उन्हें ना पारिवारिक मुसीबतें झेलनी पड़ीं बल्कि जेल तक जाना पड़ा।
देश के आजाद होने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी ने अपने बारे में एक कविता लिखने के जुर्म में जेल तक पहुंचा दिया था। मजरूह को बोला गया कि वो नेहरू से माफी मांगें लेकिन मजरूह ने नहीं माना। सत्ता की धमकियों को उन पर कोई असर नहीं हुआ और उन्होंने साफ कह दिया कि जो लिख दिया सो लिख दिया। इसके बाद 2 साल के लिए मजरूह को मुंबई की जेल में रहना पड़ा था।
मजरूह सुल्तानपुरी का ना केवल काम खूब पसंद किया जाता था बल्कि उसे सम्मानित भी किया गया था। वो पहले ऐसे गीतकार थे जिन्हें दादा साहब फाल्के अवॉर्ड से नवाजा गया था। ये सम्मान उन्हें फिल्मी दोस्ती के गीत चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे, फिर भी कभी अब नाम को तेरे.. जैसे कई बेहतरीन गानों के लिए मिला थ।
24 मई, 2000 को 80 साल की उम्र में मजरूह सुल्तानपुरी ने दुनिया को अलविदा कह दिया। इसके साथ ही दुनिया से शायरी का एक बेहतरीन इंसान रूख्सत हो गया।
इस लेख को पढ़ने के बाद आप समझ ही सकते हैं मजरूह अपने इरादों के कितने पक्के थे।
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