नक्सली बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से सुरक्षाकर्मियों पर हमला करते हैं.
जवाब में सुरक्षाकर्मी उन पर फायरिंग करते हैं तो दोनों ओर लोग मारे जाते हैं.
लेकिन अक्सर देखा गया है कि शहीद सुरक्षा कर्मियों की संख्या तो हमें पता चल जाती है लेकिन उस मुठभेड़ में नक्सली कितने मारे जाते हैं इसका सही आंकड़ा हमें पता नहीं चल पाता है.
सुरक्षा कर्मी और सरकार जितने नक्सली मारे जाने का दावा करती है उस दावे के समर्थन में कभी नक्सलियों के शव बरामद नहीं होते है.
दरअसल, जब भी कोई मुठभेड़ होती है तो उसमें जो नक्सली मारे जाते हैं उनमें से नक्सलियों के शव नक्सली उठाकर अपने साथ ले जाते हैं.
बताया जाता है कि ये सब एक विशेष रणनीति के तहत किया जाता है. क्योंकि शव से नक्सलियों के गांव और साथियों की पहचान उजागर हो जाने का डर है. क्योंकि ये नक्सली सुरक्षा बलों पर हमला करने के बाद अपने गांव में ऐसे घुलमिल जाते हैं ताकि पुलिस को इन पर शक न हो.
यदि ये मारे जाते हैं और नक्सलियों के शव पुलिस के हाथ आ जाता है तो पुलिस को तुंरत अंदाजा हो जाएगा कि नक्सलियों की पैंठ किन किन गांवों और लोगों में हैं.
गौरतलब है कि जब सुकमा में सुरक्षाकर्मियों पर हमला हुआ था तब चिंता गुफा इलाके के गांव से गोलियां चली थी. पेड़ के ऊपर से और एक तरफ के घने जंगल से ताबड़ तोड़ गोलियां बरसाई गईं. जवाबी गोलीबारी में पंद्रह नक्सलियों के मारे जाने का अधिकृत दावा भी किया गया लेकिन नक्सलियों के शव नहीं मिले.
बताया जाता है कि नक्सली अपने साथियों के शव के साथ भारी मात्रा में हथियार व गोला बारूद भी उठा ले गए. इससे जाहिर है हमला पूरी तैयारी के साथ और व्यवस्थित तरीके से किया गया था.
इतना ही नहीं जब नक्सली पुलिस मुठभेड़ में मोर जाते हैं तो नक्सली संगठन के लिए काम करने वाले लोग नक्सलियों के इशारे पर पुलिस इन काउंटर को फर्जी बता कर मामले को दूसरा ही रूख दे देतें हैं.
ग्रामीण को धमका कर और मुआवजे का लालच दिखाकर नक्सली लगभग हर मुठभेड़ के बाद ग्रामीणों को भड़काकर उनसे प्रदर्शन करवाते हैं.
दंतेवाड़ा जिले में केंद्रीय सुरक्षा बल के 75 जवानों व एक पुलिस वाले की हत्या कर दी गई थी. इस हमले के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) से जुड़ी पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी की बटालियन को जिम्मेदार माना गया था. बाद में नक्सलियों की इसी बटालियन ने सुकमा में भी हमला किया. लेकिन हर बार से बच निकलते हैं.
लोकतांत्रिक व्यवस्था को सीधे सीधे चुनौती देने वाला यह कदम कितना विकराल रूप ले चुका है और इसका दायरा कितना विस्तृत हो चुका है इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है.
नक्सलियों और माओवादियों शोषण के नाम पर देश के अंदर अपनी समांनतर व्यवस्था खड़ी करते जा रहे हैं. वहीं देश में नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाला भी एक बड़ा गुट भी है, जिसकी नजरों में नक्सली हिंसा व्यवस्था को पटरी पर लाने का एक मात्र जरिया है.
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