मुक्ति लाभ भवन – कोई उसे बनारस कहता है, कोई काशी तो कोई वाराणसी.
पिछले हज़ारों सालों में बनारस बहुत कुछ देखता सुनता आया है. सब कुछ बदलते देखा है इस शहर ने लेकिन नहीं बदली तो बस गंगा की पवित्र धारा. शिव की इस नगरी पर सनातन धर्मियों के अनुसार साक्षात शिव का हाथ है. माना जाता है जो यहां अपनी ज़िन्दगी की यात्रा पूरी करता है वो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है.
इस शहर के लिए केदारनाथ सिंह ने कहा है-
‘तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसन्त का उतरना
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़-रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अंधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़…….’
यह चंद पंक्तियां बनारस को पूरी सच्चाई से बयां करती है.
बनारस में मृत्यु आने पर मिलने वाली मोक्ष की कामना हर साल यहां हज़ारों लोगों को खींच लाती है.
मोक्ष की प्राप्ति की चाह में अपनी अंतिम सांसे बनारस में बिताने की इच्छा रख कर आने वालों के लिए सालों पहले यहां ‘काशी मुक्ति लाभ भवन’ की स्थापना की गई.
मृत्यु के करीब पहुंच चुका कोई भी शख़्स यहां आकर अपनी जीवनलीला समाप्त होने की आश में ठहर सकता है.
कैसे पड़ी काशी मुक्ति लाभ भवन की नींव-
इसका निर्माण मूलरूप से 1908 में हुआ था. भवन पर हरिराम गोयनका का स्वामित्व है परन्तु 1950 के बाद से इस भवन की देखरेख का जिम्मा डालमिया ट्रस्ट उठा रहा है.
ट्रस्ट के तत्कालीन अध्यक्ष जयदयाल डालमिया की दादी अपने जीवन के अंतिम दिनों में बनारस में ही रहा करती थी. जयदयाल ने अपनी दादी की याद में यह नेक काम अपने जिम्मे लिया.
बनारस के गोदौलिया चौराहे के निकट यह भवन बना हुआ है. इस भवन में 12 कमरें हैं.
मुक्ति लाभ भवन की अनौखी दिनचर्या-
सनातन धर्म में कहा गया है कि बनारस में शरीर त्यागने वाला वैतरणी पार कर जाता है.
इसी आश में यहां आने वाले लोग मुक्ति लाभ भवन में लगभग 2 हफ़्तों तक रह सकते हैं. इस दौरान अगर उनकी मौत नहीं होती है तो उन्हें पुनः घर जाने के लिए निवेदन किया जाता है. लोगों से कहा जाता है कि जो भी यहां रहने आये वो गौदान करके ही आये.
यहां दिन-भर रामायण के पाठ चलते रहते हैं. सुबह और शाम होने वाली आरती में सभी लोग शामिल होते हैं. यहां मौत की आश में आने वाले लोगों के साथ उनका कोई एक परिजन भी साथ रह सकता है. यहां रहने वाले लोगों को तुलसी और गंगा जल भी दिन में कई बार दिया जाता है.
अब तक इस मुक्ति लाभ भवन में रह कर 15,000 से ज्यादा लोग अपना शरीर त्याग चुके हैं. भवन की देखभाल करने वाले बताते हैं कि हर रोज यहां किसी न किसी को मोक्ष प्राप्त ज़रूर होता है.
मौत के बाद शव को गंगा के घाट पर ले जाकर जला दिया जाता है. शव की राख को गंगा में बहा कर अंतिम सफ़र के लिए विदाई दे दी जाती है.
जीवन का सबसे बड़ा सत्य है मृत्यु. मृत्यु और जीवन में निरंतर एक क्रम चलता रहता है. कई लोग इस क्रम में न पड़ कर ब्रह्म में लीन होकर इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाना चाहते हैं, ऐसे ही लोगों के लिए बनारस एक शहर न बन कर इस चक्र से मुक्ति पाने का साधन बन जाता है. ऐसे में मुक्ति भवन जैसे आश्रय स्थल साधन की भूमिका में नज़र आते हैं. आज इसी तर्ज पर यहां सैकड़ों और मुक्ति धाम बन चुके हैं. जहां हर रोज सैकड़ों सांसे अंतिम सांस का इंतज़ार लिए चलती रहती हैं.