बिहार के मधुबनी जिले में हुए भीषण बस हादसे के बाद स्थानीय विधायक भावना झा के घटनास्थल पर सेल्फी लिए जाने वाली तस्वीर सोशल मीडिया पर तो खूब चली लेकिन नेशनल मीडिया ने इस खबर को कोई खास तवज्जों नहीं दी.
इसको लेकर सोशल मीडिया में यह बहस चल पड़ी कि आखिर क्या कारण है कि दिल्ली में बैठे मीडिया को कांग्रेस या अन्य किसी भाजपा विरोधी दल के नेता की सेल्फीवाली खबर पसंद नहीं आती है.
भाजपा के नेताओं की सेल्फीवाली खबर तो मीडिया में दिन रात चलती है लेकिन भाजपा विरोधी दलों के नेताओं की विवादस्पद सेल्फीवाली खबर पर मीडिया चुपी साध लेता है. ऐसा क्यों होता है.
ऐसा करने के पीछे मीडिया में बैठे लोगों का कोई खास एजेंडा या मकसद होता है या फिर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के मुकाबले भाजपा की नेताओं की सेल्फी दिखाने पर ज्यादा टीआरपी मिलती है.
सोशल मीडिया पर चल रही इस बहस के आरोपों को इस बात से भी बल मिलता है कि जब महाराष्ट्र में भाजपा की मंत्री पंकजा मुंडे राज्य में सूखा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने गई तो वहां उन्होंने एक सेल्फी ली और इस सेल्फीवाली खबर को लेकर विपक्ष के साथ मीडिया ने खुब शोर मचाया. यही नहीं, हाल में राज्यथान महिला आयोग की सदस्या सौम्या गुर्जर ने बलात्कार पीड़िता के साथ अपनी एक सेल्फी सोशल मीडिया पर अपलोउ कर दी थी, तो इस सेल्फीवाली खबर को लेकर भी मीडियामें खूब हंगामा हुआ था.
लेकिन बिहार की कांग्रेस विधायक भावना झा को लेकर मीडिया में चर्चा न होने को लेकर अब लोग सवाल खड़े कर रहे हैं.
लोग जानना चाहते है कि मीडिया समान खबरों को लेकर अलग अलग नजरिए क्यों रखता है.
उसके द्वारा दिखाई जाने वाली खबरों में एकरूपता क्यों नहीं होती है. केंद्रीय खेल मंत्री विजय गोयल हो या फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सामान्य सेल्फी को लेकर प्राइम टाइम में नकारात्मक खबर बनाकर प्रस्तुत करने वाला मीडिया जिस प्रकार अन्य नेताओं की विवादस्पद सेल्फी को दबा जाता है वह अपने आप में सवाल तो खड़े करता ही है साथ ही चिंता का विषय भी है.
जानकारों का भी मानना है कि हाल के दिनों में मीडिया में विभाजन साफ तौर पर नजर आया है. विशेषकर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद तो इसमें और तेजी आई है. राजधानी दिल्ली में भारत के टुकड़े करने की बात हो या कश्मीर की आजादी की मांग करने वालों पक्ष में खड़ा होना बताता है कि कई बार मीडिया अपनी लाइन से भटका है.
मीडिया में निष्पक्षता या अभिव्यक्ति की आजादी का यह कतई मतलब नहीं है कि आप किसी खास विचारधारा को प्रोत्साहित करें और अन्य को कहने सुनने का अवसर ही न प्रदान करे.
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