भारत

नक्सली और हम !

माओवादी नक्सली हिंसा अब कानून व्यवस्था का साधारण मसला नहीं रह गया है.

आज नक्सली दीमक बनकर देश के एक-तिहाई जिलों तक पहुंच गए हैं. आधुनिक हथियारों से लैस वे राष्ट्र एवं राज्य से युद्ध पर आमादा हैं. गौरतलब है कि माओ ने बंदूक की नली को सत्ता प्राप्ति का उपकरण बताया था. वहीं, लेनिन ने भी उत्पीड़ित वर्गों द्वारा शोषक वर्गों व गुलामों द्वारा मालिकों के खिलाफ युद्ध एवं हिंसा को सही ठहराया था. लेकिन आज की तारीख में हिंसक वामपंथी गरीब आदिवासियों, बच्चों और महिलाओं को भी अपना निशाना बनाते हैं व उन्हें मौत के घाट उतार देते हैं. वे आए दिन पुलिस का मुखबिर बताकर किसी को भी मार देते हैं.

इसी के साथ वे सुरक्षाबलों पर भी हमला किया करते हैं. वे राजनेताओं को भी कई बार मार चुके हैं. वे संविधान, संसद, न्यायपालिका और मनुष्य जीवन की गरिमा नहीं मानते और दूसरों के रक्तपात में ही यकीन रखते हैं. फिर उनसे आरपार की लड़ाई न करने का सवाल ही नहीं पैदा होना चाहिए.

माओवादी नक्सली आज सहानुभूति के लायक नहीं रह गए हैं.

उन्हें दंड देने के लिए सुरक्षाबलों को ज़रूरी अतिरिक्त विधिक शक्ति भी देनी चाहिए. वहीं, सरकारों को भी आदिवासी-वनवासी लोगों के बीच जनकल्याण और सुशासन के वास्तिविक कर्तव्य भी निभाने चाहिए. माओवादियों के पर्चों एवं मांगपत्रों में कही गई बातें उनकी रणनीति का हिस्सा हो सकती हैं पर उनके तथ्यों को यूहीं नहीं नकारा जा सकता. ये किसीसे भी नहीं छुपा है कि आज आदिवासी भुखमरी के शिकार हैं. वे जंगल की सूखी लकड़ियां व पत्तियां भी नहीं ले सकते. आदिवासी अपना जल, जंगल, ज़मीन का साधारण उपभोग भी नहीं कर सकते. वे जीवन की सभी बुनियादी सुविधाओं से वंचित कर दिए गए हैं. इसी का फायदा उठाकर माओवादी नक्सली उन्हें अपनी हिंसक जमात में शामिल कर लेते हैं. विकास कार्यों व खदानों में औद्योगिक घरानों की लूट, ठेकेदारों और अफसरों का सामंती चरित्र, गरीब युवकों को नक्सली पक्ष से जोड़ता है. गरीब वनवासी कलेक्टर से न्याय भी नहीं पाते.

राजनीतिक दल हमेशा से ही नक्सलियों से समाज की मुख्यधारा में लौटने की बात करते रहते हैं. लेकिन इन्हीं नेताओं ने आदिवासी, वनवासी आदि विशेष पिछड़े इलाकों के संबंध में संविधान निर्माताओं की साधारण अपेक्षा की भी असाधारण उपेक्षा की है. संविधान के अनुच्छेद 244 (1) में असम, मेघालय और मिजोरम छोड़ बाकी राज्यों में अनुसूचित इलाका घोषित करने और ऐसे इलाकों में प्रशासन की विशेष व्यवस्था के प्रावधान हैं. बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओड़ीशा आदि राज्यों में इसी प्रावधान में ‘अनुसूचित इलाके’ घोषित किए गए थे.

देश के संविधान निर्माता सजग थे पर संविधान की शपथ लेकर काम करने वाले सत्ताधीशों ने संविधान की भावना का आजतक अपमान ही किया है. तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद भी राजनीतिक तंत्र ने गरीबों, अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित इलाकों की उपेक्षा ही की है. जिससे आदिवासियों का दलतंत्र से लगभग भरोसा ही उठ चुका है. जनतंत्री संस्थाओं ने उन्हें आजतक दिया ही क्या है- न रोटी, न रोज़गार, न शिक्षा और न ही सुरक्षा. नक्सलियों के द्वारा इसी का फायदा उठाया गया है. आज की तारीख में भारतीय माओवादी गरीब या मज़दूर समर्थक नहीं हैं. इस नए युग में वे क्रांति का सपना पाल रहें हैं और हिंसा को ही अपना वास्तविक विकल्प बता रहें हैं. नक्सलवादियों को समझ आ चुका है कि वर्त्तमान राजनीतिक व्यवस्था में खोट है और इसी कारण गरीब आदिवासी नक्सली होते जा रहें हैं.

देखा जाए तो माओवादी नक्सली हिंसा या आतंरिक अशांति देश की इसी दलतंत्र, पूंजीतंत्र, ठेकेदारी और सरकारी तंत्र के कारनामों का कुफल है. आज हम भारतीय शासन व्यवस्था की असफलता का ही विस्फोट देख रहें हैं जो नक्सलवाद के रूप में हमारे सामने खड़ी है.

Devansh Tripathi

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