मलाला युसुफजई आज के दौर में यह नाम शायद ही किसी के लिए अजनबी हो।
यूँ तो मलाला युसुफजई का नाम 2014 में नोबेल प्राइज विजेता बनने के कारण मशहूर हुआ है लेकिन अगर इन्हें यह अंतर्राष्ट्रीय सम्मान ना भी मिलता तो भी इन्होने अपनी 11 साल की उम्र से ही समाज के लिए जो योगदान दिये हैं वह अद्भुत हैं।
मलाला का जन्म 12 जुलाई 1997 को पकिस्तान के खैबर पख्तून्ख्वा प्रांत में हुआ था। बचपन से ही पढने लिखने की शौकीन मलाला को स्कूल जाने तथा शिक्षा को प्रोत्साहन देने में बड़ा मज़ा आता था. लेकिन अचानक से 2007 में स्वात वेल्ली पर तालिबान आतंक का कब्ज़ा हो जाता है और ये आतंकी इस्लामिक कानूनो की आड़ में लड़कियों की स्वतंत्रता पर पूर्ण अंकुश लगा देते हैं मतलब इनके सारे स्कूल बंद कर देते है साथ ही लड़कियों के टीवी देखने पर पाबंदी लगा दी जाती है।
अगर संक्षेप में कहें तो महिलाओं की स्वतंत्रता रुपी ईमारत को ढहा कर इस्लामिक कानूनों की नीव की नई आधारशिला रखी जाती है।
लेकिन जब इस दुनिया को तालिबानी शासन और इस सारे घटना क्रम के बारे में तब पता चलता है, तब बीबीसी (ब्रिटिश ब्रोडकास्ट चैनल)की मुलाकात मलाला से होती है और मलाला डायरी शैली के माध्यम से तालिबान के आतंक को उजागर करते हुए आर्टिकल लिखती है। मलाला द्वारा लिखित यह आर्टिकल अंतर्राष्ट्रीय मिडिया की सुर्ख़ियों में आने लगते है और इस तरह यह डायरी तालिबान की कुकृत्यों का प्रमाणित दस्तावेज साबित हो जाती है।
इसके बाद 2009 में मलाला युसुफजई टीवी मिडिया के सामने आती है और इंटरव्यू में बताती है कि कैसे तालिबान ने उसके स्कूल के अधिकार तक को छीन लिया इसके साथ ही मलाला ने बताया कि इस कारण वह अपना पसंदीदा भारतीय टीवी शो “राजा की आएगी बारात” भी वह नहीं देख पाई।
इस खुलासे के साथ ही मलाला युसुफजई की प्रसिद्धि पूरी दुनिया में फ़ैल गई और पहली बार २०११ में उसे पाकिस्तान के “राष्ट्रीय युवा शांति पुरुष्कार” से सम्मानित किया जाता है। इसके साथ ही पुरुष्कारों और सम्मानों की होड़ मलाला के पास लग जाती है जो फाइनली 2014 में नोबेल पुरुष्कार के रूप में सर्वसम्मान के साथ थम जाती है, क्योंकि यह नोबेल प्राइज महज मलाला द्वारा किये गए अद्भुत कार्यों का सम्मान ही नहीं था बल्कि यह २१वीं सदी में महिलाओं की स्वतंत्रता की प्रतिबद्धता को अन्तराष्ट्रीय मंच से स्वीकारे जाने का प्रमाण था, जिसे पाक जैसे दिखावेबाज और ढोंगी देश हर पल ख़त्म करने का सपना देखते हैं ताकि सदियों पुरानी रूढ़ियों और इस्लामिक कानूनोंको लागू किया जा सके. यह रूढ़िवादिता ही है कि आज के दौर में कुछ तत्व संस्कृति को हथियार बना कर लोकतंत्र पर हमला करते हैं और साथ ही साथ हमला करते हैं मानवता पर।
आज मलाला युसुफजई नोबेल प्राइज प्राप्त करने वाली दुनिया की पहली सबसे कम उम्र की महिला बन चुकी है। मलाला के साथ ही बाल श्रम पर कार्य करने के लिए कैलाश सत्यार्थी को भी नोबेल पुरुष्कार से नवाजा गया।
चूँकि एक प्रश्न अब भी हमारे सामने उपस्थित है और वह यह है कि “आखिर कब तक संस्कृति और धर्म के चोले को ओढ़कर ये तत्व अमानवीय व्यवहार करते रहेंगे?” जिसका जवाब जनता के साथ साथ सरकार को अब ढूंढना ही होगा। हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हमारे लिए संस्कृति बड़ी है या आज का वैश्वीकरण और अगर दोनों तो फिर संस्कृति को भी समय अनुसार ढालने के जरूरत है।