शराब और गाँधी जी…. सुनकर ही आश्चर्य होता है ना?
शराब की दुकानों के खिलाफ़ प्रदर्शन, आन्दोलन करने वाले महात्मा गांधी कैसे शराब पर झूम सकते है?
लेकिन ये बात झूठ नहीं है ये बात सच है, यहाँ बात उस शराब की हो रही है जिसकी तारीफ ना सिर्फ महात्मा गांधी ने की थी अपितु 1935 से लेकर आज तक लोगों को एक अनूठा नशा दे रही है.
यहाँ जिस शराब की बात हो रही है वो कोई आम शराब नहीं ये तो महान हिंदी कवि हरिवंश राय बच्चन की अमर कृति मधुशाला है.
मधुशाला की रुबाइयां किताब छपने से पहले ही छात्रों के बीच बहुत प्रसिद्द हो गयी थी. किताब छपने के बाद तो इस कृति की प्रसिद्धि ने ऐसा ज़ोर पकड़ा कि हर कवी सम्मलेन, हर गोष्ठी में बच्चन को मधुशाला पढने को बुलाया जाने लगा.
सीधे सरल शब्दों में लिखी रुबाइयाँ अपने अंदर गहन अर्थ समाये थी. ऐसा नहीं है कि हर कोई मधुशाला को चाहने वाला ही था, कुछ नासमझ लोग ऐसे भी थे मधुशाला ना नाम भी नहीं सुहाता था तो कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें लगता था कि मधुशाला शराब का महिमामंडन कर रही है.
इस तरह की बातें जब महात्मा गांधी तक पहुंची तो उन्हें लगा यदि ये बात सच है तो इस प्रकार की कवितायेँ उनके शराब विरोधी आन्दोलन पर विपरीत प्रभाव डालेगी.
लेकिन सीधा ही मधुशाला पर ऊँगली उठाने से पहले महात्मा गाँधी ने हरिवंश राय बच्चन से मधुशाला सुनाने का निवेदन किया.
बच्चन ने महात्मा गांधी को मधुशाला सुनानी शुरू की और मधुशाला सुनकर महात्मा गाँधी भी मुग्ध हो गए.
उन्होंने बच्चन से कहा कि इस मधुशाला में कुछ भी गलत नहीं है अपितु ये तो ऐसी पुस्तक है जिसे सभी को पढ़ना चाहिए. इतनी बड़ी बड़ी बातें इसमें कितनी सरल भाषा में कही गयी है.
इस प्रकार मधुशाला के इस अद्भुत नशे से स्वयं महात्मा गांधी भी नहीं बच सके.
आज 18 जनवरी को हरिवंश राय बच्चन की पुण्यतिथि है.
बच्चन ने लेखन की एक अनोखी विधा बनायीं थी. उनकी कवितायेँ उस समय के अन्य कवियों की तरह भुत ज्यादा कलिष्ठ भाषा में नहीं होती थी. साधारण भाषा का उपयोग करके भी बच्चन बड़ी से बड़ी बात भी आसानी से कह देते थे.
उनकी लिखी मधुशाला की एक एक रुबाइयाँ उम्दा है और आज के समय में भी मधुशाला की रुबाइयों का महत्व उतना ही है जितना उस समय था. यदि ये कहा जाए कि आज के समय में उन रुबाइयों का महत्व और भी बढ़ गया है तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.
आइये देखते है हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला की कुछ रुबाइयां
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,
‘किस पथ से जाऊँ?’ असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ
‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला.
लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला.
धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला.
एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला
दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला.
मुसलमान औ’ हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला.
देखा आपने एक एक रुबाई में कितना गहरा अर्थ छुपा है, मधुशाला सिर्फ कविता नहीं ये जीवन का सत्य है. धर्म निरपेक्षता, आडम्बर पर चोट करती, प्यार की गहराइयों को बताती, मनुष्य शरीर की नश्वरता को इंगित करती आखिर क्या नहीं है मधुशाला में.
एक बार जो इसे पढले वो जीवन भर इस मधुशाला के नशे में झूमता ही रहता है.
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