लखनऊ का टुंडा कवाब पूरे देश भर में प्रचलित है.
नॉनवेज के मामले में उतनी किसी और व्यंजन को प्रसिद्धि नहीं मिल पाई है. बता दें कि लखनऊ के सौ साल पुराने टुंडे कबाब की इस दुकान पर दूर दू से लोग इसका स्वाद चखने पहुंचते हैं. कहा जाता है कि लोग कहीं से भी पता पूछते-पूछते लखनऊ के अकबरी गेट की इस दुकान पर पहुंच जाते हैं.
लखनऊ का टुंडा कवाब – क्या है कहानी
लखनऊ के अकबरी गेट के पास स्थित टुंडे कवाब की दुकान 1905 में हीं खोली गई थी.
इस दुकान के मालिक 70 साल के हैं. इनका नाम रईस अहमद है. रईस अहमद का कहना है कि उनके पूर्वज भोपाल के नवाब के यहां खानसामा का काम किया करते थे. क्योंकि नवाब खाने के बेहद शौकीन थे लेकिन उनकी उम्र ज्यादा थी और उनके दांत नहीं थे. जिस कारण से खाने में उनको काफी परेशानी होती थी. ऐसे में कवाब बनाने की बात दिमाग में आई. ये सोचा गया कि क्यों ना एक ऐसा कवाब बनाया जाए जिसके लिए दांत की आवश्यकता हीं ना हो. और स्वाद में भी कोई कमी ना हो. इस तरह गोश्त को बारीक पीसकर उसमें पपीता मिलाकर कवाब तैयार किया गया. जो मुंह में लेते हीं घुल जाए.
इसके स्वाद को बेहतर बनाने के लिए उसने कई और तरह के मसालों का भी इस्तेमाल किया गया. इस तरह से हाजी परिवार लखनऊ पहुंच गया. अकबरी गेट के पास उन्होंने अपनी दुकान खोल दी.
कैसे पड़ा नाम – लखनऊ का टुंडा कवाब
कहा जाता है कि जब खाने का स्वाद अच्छा हो तो लोग खुद-ब-खुद खिंचे चले आते हैं.
इसी तरह हाजी परिवार के इस दुकान की चर्चा भी काफी तेजी से दूर-दूर तक फैल गई. और लोग यहां आकर कबाब का स्वाद लेने लगे. इस तरह इनकी दुकान की चर्चा हुई. और ये दिन-ब-दिन फेमस होते चले गए. बता दें कि टुंडे उसे कहा जाता है जिसके हाथ नहीं होते हैं. और रईस अहमद के पिता पतंग उड़ाने के काफी शौकीन थे. एक बार पतंग के कारण उनका हाथ टूट गया था.
ऐसी स्थिति आई कि उनके उस हाथ को काटना पड़ गया. और अब रईस अहमद अपने पिता के साथ दुकान पर बैठने लगे, क्योंकि उनके पिता टुंडे हो गए थे जिस कारण यहां जो भी व्यक्ति कवाब खाने पहुंचते वो टुंडे कबाब बोलने लगे. और इस तरह से टुंडे कवाब का नाम पड़ गया टुंडे कवाब.
इस तरह से पड़ा नाम लखनऊ का टुंडा कवाब – तो दोस्तों है ना टुंडे कबाब की कहानी बेहद रोचक. इससे पहले आपने सोचा भी नहीं होगा कि टुंडे कबाब का नाम इस तरह टुंडा कवाब पड़ा होगा.
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