विनाशे बहवो दोषा जीवन् प्राप्रोति भद्रकम।
तस्मात प्राणान् धरिष्यामि ध्रुवो जीवति संगम:।। वा,रा,।।
यह बात हनुमानजी ने सोची जब वह लंका में सीता माता की खोज कर रहे थे.
बहुत प्रयास के बाद भी उनको माता का पता नही मिल रहा था, तब उन्होनें विचार किया कि अगर मै माता का पता लगाए बिना वापस गया तो सुग्रीव अंगद सहित सभी वानरों का वध कर देगे।
श्रीराम को सीताजी का पता नही चला तो वह उनके वियोग में प्राण त्याग देगें। उनकों देख कर लक्ष्मण और फिर भरत, शत्रुघ्न भी प्राणों का त्याग कर देगें । अयोध्या सुनी हो जाएगी। इतने लोगों के प्राण देने से अच्छा है, मैं लौट के ना जांऊ और यही प्राण त्याग कर दूं। भले लोग सभी का भला सोचते है। उन्होने सोचा मैं वापस ना जांऊगा तो सभी वहां मेरे वापस आने का इंतजार करेगें फिर जब मेै वापस नही पहंूचुगा तो वे अपने अपने धाम चले जाएगें, किंतु फिर उनके मन में यह विचार आया कि इस जीवन का नाश कर देने मै बहुत से दोष है। जो पुरुष जीवित रहता है, वह कभी ना कभी अवश्य सफल होता है। अत: मै प्राण त्याग नही करुंगा।
जीवित रहने पर सुख की प्राप्ति अवश्य होती है।
यही इस श्लोक का अर्थ है ।जीवन संघर्ष है। उसमें सफल होने के लिए संघर्ष करना ही पड़ता है। संसार का कोई भी मनुष्य हो असफलता से सबका सामना हुआ है। असफलता ही सफलता कि कुंजी होती है। घोर निराशा में प्राण त्याग करने वाले को प्रकृति भी स्वीकार नही करती है तथा शास्त्रों के अनुसार उसके लिये किया गया श्राद्ध कर्म भी उसको प्राप्त नही होता है।
अत: कैसी भी असफलता हो आत्महत्या करना उसका हल नही है।
यदि हनुमानजी ने भी आत्महत्या की होती तो आज वह जगत पूजनीय नही होते किंतु उन्होनें आत्महत्या का विचार त्याग दिया तथा फिर से सीता माता को खोजने का प्रयास किया तथा सफल भी हुए और श्रीराम के प्रिय होकर सभी के वंदनीय भी हुए।