भारत के जाने माने तबला वादक लच्छू महाराज की 74वीं वर्षगाठ पर गूगल ने डूडल के जरिये उन्हें याद किया है।
गूगल ने आज का डूडल भारत के तबला जादूगर को समर्पित किया है। लच्छू महाराज लखनऊ घराने से संबंध रखते थे और इन्हें कुशल तबला वादक माना जाता है। बता दे कि बनारस घराना तबला वादन की छह सबसे प्रचलित विधा में से एक है, जिसे आज से करीब 200 साल पहले ढ़ूढा गया था। उन्हें देश-विदेश में तबला वादन में ख्याति हासिल है। शायद यहीं वजहथा कि लच्छू महाराज जब तबला वादन करते सब उन्हें सुनने के लिए बेचेन हो जाते थे, इसलिए उन्हें तबले का जादूगर भी कहा जाता था।
कौन थे लच्छू महाराज
लच्छू महाराज बनारस के तबला से ताल्लुक रखते थे और वह लखनऊ से महान कथक नर्तक थे। साल 1907 से 1978 तक उन्होंने बतौर भारतीय शास्त्रीय मर्तक और कथक के कोरियोग्राफक के तौर पर काम किया है। पंडित लच्छू जी महाराज में शानदार कथक घाटियों के परिवार से आए और इसके बार भारतीय फिल्म जगत का रूख करते हुए हिन्दी सिनेमा जगत में बतौर फिल्म कोरियोग्राफर के तौर पर काम किया है। इसके अलावा लच्छू महाराज ने विशेष रूप से साल 1960 में आई फिल्म मुगल-ए-आज़म और 1972 में आई पेकेज़ाह में काम किया है।
पंडित लच्छू महाराज ने अपने जीवन के प्रांरभिक दस वर्षो तक अवध के नवाब के पंडित बिंदद्दीन महाराज और उनके चाचा और अदालत नर्तक से व्यापक तौर पर प्रशिक्षण लिया। साथ ही उन्होंने पक्वाज, तबला और हिन्दुस्तान शास्त्रीय संगीत का भी ज्ञान ग्रहण किया। इसके बाद अपने जीवन यापन के लिए अपने तबला वादन और संगीत प्रेम को करियर बनाने के लिए वह मुबंई में फिल्मी जगत में काम करने चले गए। जहां उनके कथक को उभरते फिल्म उद्दयोग ने दर्शकों तक पहुंचाने में मदद की। दर्शकों को उनका कथक बेहद पंसद आया, जिसका बाद उनकी ख्याति दिनों-दिन देश-विदेशों में बढ़ने लगी। फिल्मी पर्दे पर पंडित लच्छू महाराज को महल (1949), मुगल-ए-आज़म (1960), छोटा छोटा बोटेन (1965) और पाकीज़ा (1972) के अलावा उन्हें नृत्य दश्यों की नृत्य शैली के लिए भी प्रशंसित किया गया था। उन्होंने कथक को आगे भी जारी रखने के लिए लखनऊ में कथक केंद्र की स्थापना की थी।
तबले और जीनव में कोई फर्क नहीं था लच्छू महाराज के
लच्छू महाराज को तबले से कुछ इस कदर प्यार था कि आठ साल की उम्र में जब वो तबला बजाते तो बड़े-बड़े तबलावादक शांत स्वभाव के साथ उन्हें सुनने पर मजबूर हो जाते थे। इतना ही नहीं उनके एक कार्यक्रम के दौरान वहां मौजूद अहमद जान थिरकवा ने यह तक कहा था कि “काश लच्छू मेरा बेटा होता”
ये वो वक्त था जिसने लच्छू महराज को झंझौर दिया था
लच्छू महाराज तवायफों के परिवार से आते थे।एक समय की बात है जब वह एक समारोह के दौरान तबला वादन कर रहे थे, तब लच्छू महाराज के बारे में बात करते हुए साहित्य के व्योमकेश शुक्ल ने कहा कि तवायफों के परिवार से आने वाले कलाकार कितनी भी प्रसिद्धी हासिल क्यों ना कर ले, लेकिन उन्हें शर्म का अनुभव जरूर होता है।
लम्बी बीमारी से जूझ रहे पंडित लच्छू महाराज ने 28 जुलाई 2016 को बनारस में अंतिम सांस ली थी। लच्छू महाराज को जब पद्मश्री से सम्मानित किया जा रहा था उस दौरान उन्होंने यह कहते हुए पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया कि किसी भी कलाकार को अवॉर्ड की जरूरत नहीं होती, दर्शकों से मिली वाली शाबाशी उनका असली अवॉर्ड है।
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