राजा और राजनेता – पुराने ज़माने में हर राज्य का एक राजा हुआ करता था जो प्रज़ा की देखभाल और परेशानियों, समस्याओं को सुनता और सुलझाता था, लेकिन भारत में राजतंत्र के खत्म होने के बाद गणतंत्र आया और राजा की जगह आए राजनेता.
वैसे दोनों ही शब्दों की शुरुआत में ‘राज’ है यानी शासन. राजा तो होता ही था शासन करने के लिए, लेकिन लोकतंत्र में ऐसा कहा गया कि राजनेता जनता के सेवक होंगे, मगर क्या ऐसा कभी हो पाया?
हमें तो नहीं लगता. आपकी क्या राय है राजा और राजनेता के में.
लोकतंत्र में बस एक फायदा ये हुआ कि हम नेता को चुन सकते हैं, जबकि राजतंत्र में लोगों को अपना राजा चुनने का अधिकार नहीं था ये तो वंशानुगत चलता रहता था. वैसे देखा जाए तो नेता चुनने का अधिकार मिलने के बाद भी क्या बदल गया. जनता जो आज भी बेचारी ही है जिसकी समस्या की कोई सुनवाई नहीं. राजनेता राज करने में व्यस्त हैं, अपनी जेबे भरने में.
कई बार लगता है इसके लिए ज़िम्मेदार जनता ही तो है क्यों चुनती है ऐसे चोर-उचक्कों को नेता, जिन्हें जनता से नहीं अपनी जेब से मतलब है, फिर थोड़ा ठंडे दिमाग से सोचने पर समझ आता है कि बेचारी जनता क्या करे, उसके सामने जितने विकल्प होंगे वो तो उन्हीं मे से चुनेंगी न. अगर आपके सामने 4 सड़े हुआ आम रखे हैं और कहा जाए कि भई इसमें से आपको एक तो सुनना ही पड़ेगा, तो क्या करेंगे आप झक मारकर आपको एक आम चुनना ही पड़ेगा और आप जो भी आम चुनेंगे वो खऱाब ही निकलेगा, क्योंकि आपको अच्छा विकल्प तो दिया ही नहीं गया.
हमारे लोकतंत्र की भी हालत कुछ ऐसी है, एक छोटा सा नेता भी साल भर में करोड़पति बन जाता है और एक आमनौकरी पेशा इंसान सारी ज़िंदगी मेहनत करके भी मुश्किल से अपना घर खर्च चला पाता है. फिर इस लोकतंत्र का क्या और किसको फायदा हुआ?
जनता के पास रोज़गार नहीं है, लेकिन वो किससे कहे यहां तो राज दरबार लगता नहीं है जहां लोग अपनी समस्या लेकर जाएं. राजा कम से कम लोगों की बात सुनता तो था, मगर ये राजनेता तो 5 साल में सिर्फ एक बार ही सुनते हैं, उसके बाद को कान में रुई डालें अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं. जनता जाए भाड़ में हमें उससे क्या, अब तो इस बेवकूफ जनता से 5 साल बाद ही निपटना हैं न, तब देखेंगे.
हाथ जोड़कर थोड़े वादे करके मांग लेंगे वोट इसमें कौन सी बड़ी बात है, आखिर ये जनता जाएगी कहां, इनके पास कोई विकल्प तो है नहीं. वैसे ऐसा नहीं है कि राजतंत्र बहुत अच्छा था, लेकिन हां जिस राज्य का राजा अच्छा होता था वहां कि प्रजा बहुत सुखी और खुश होती थी, लेकिन लोकतंज्ञ आने के बाद तो किसी राज्य की जनता सुखी और खुश नज़र नहीं आती, हर जगह लोग परेशान ही दिखते हैं, बस कागज़ों पर जनता के कल्याण की बात होती है और असलियत में उस पर सिर्फ राजनीति होती है.
ये है फर्क राजा और राजनेता में – सत्ता पक्ष ने किया तो विपक्ष उसे गलत ठहराया और विपक्ष कुछ काम करे तो सत्ता पक्ष उसमें मीनमेख निकालेगी, कुल मिलाकर राजनेताओं की जिस मकसद से कुर्सी दी जाती है वो कभी पूरी नहीं हो पाती और राज नेता बस राज की करते रहते हैं और जनसेवक होने का डंका पीटते हैं. ऐसे लोकतंत्र से तो शायद राजतंत्र ही बेहतर था. आप क्या सोचते हैं, अपनी राय ज़रूर बताइएगा.