हमारा समाज सेक्स वर्कर के लिए बहुत ही हीन दृष्टी रखता है.
ऐसे में अगर कोई सेक्स वर्कर को जलती चितों के पास नाचते हुए देखे तो सबको लगेगा कि सेक्स वर्कर बदला देने के लिए नाच रही है या पैसो के लिए!
लेकिन सच हम आपको बताएँगे – क्यों बहुत सी सेक्स वर्कर काशी में जलती चिताओं के पास नाचती हुई दिखाई देती है?
काशी के जिस मणिकर्णिका घाट पर मुर्दों को लाया जाता है, वहीं पर बहुत सी सेक्स वर्कर नाचती रहती है. इन्हें ना तो यहां जबरदस्ती लाया जाता है और ना ही इन्हें पैसों के दम पर बुलाया जाता है. ये खुद जीते जी मोक्ष पाने के लिए यहाँ आती हैं, ताकि इन्हें अगले जन्म में सेक्स वर्कर ना बनना पड़े.
इन्हें यकीन है कि अगर इस एक रात ये जी भरके यूं ही नाचेंगी तो फिर अगले जन्म में इनको ऐसी नरक जैसा जीवन दोबारा नहीं जीना पड़ेगा.
उनके अनुसार बस यही एक रात होती है इस कलंकित जीवन से मोक्ष पाने के लिए.
चैत्र नवरात्र के आठवें दिन श्मशान के करीब के शिव मंदिर में शहर की सारी सेक्स वर्कर इकट्ठा होती हैं और फिर भगवान के सामने जी भरके नाचती हैं. यहां आने वाली सारी सेक्स वर्कर अपने आपको बेहद खुशनसीब मानती हैं क्योकि साल में एक बार यह मौका आता है.
मान्यताओं के अनुसार आज से सैकड़ों साल पूर्व राजा मान सिंह द्वारा बनाए गए बाबा मशान नाथ के दरबार में कार्यक्रम पेश करने के लिए उस समय के प्रचलित नृत्यांगनाओं को और कलाकारों को बुलाया गया था लेकिन ये मंदिर श्मशान घाट के बीचों बीच मौजूद होने के कारण सारे कलाकारों ने यहां आने से इनकार कर दिया.
राजा ने इस कार्यक्रम का ऐलान पूरे शहर में करवा दिया था. राजा अपनी बात से पीछे नहीं हट सकते थे. इसलिए बात यहीं रुकी पड़ी थी कि श्मशान के बीच नृत्य करने आखिर किसको लाया जाये? तब उपाय सोचा गया और शहर की बदनाम गलियों में रहने वाली सेक्स वर्कर को इस मंदिर में नृत्य करने के लिए बुलाया गया.
इस महाश्मशान के बीच नृत्य करने का न्योता इसलिए स्वीकार कर लिया क्योंकि शिव मंदिर में नृत्य करना उनके लिए सन्मान की बात थी.
और… तब से ये परंपरा चली आ रही है.
इस परम्परा को आगे बढाने में कई बाधाएं आने के बावजूद भी यह परम्परा आज जारी है. इस परम्परा को देखने के लिए देश विदेश से लोग आते हैं.
इन पुरानी प्रथाओं और परम्पराओं को जब तक हम मानते रहेंगे तब तक हमारे देश की सामाजिक स्थिति में सुधार नहीं आएगा.
हम भारतीय अपने आपको कितना भी मॉडर्न और शिक्षित समझे लेकिन आज भी इन प्रथाओं और मान्यतों अपने अन्दर से निकाल नहीं पाए है. उससे लगता है कि हमें सोच बदलने में अभी युगों लग जायेंगे.