जैन धर्म में अहिंसा को सबसे बड़ा गुण माना गया है. दुनिया के सभी धर्म अहिंसा की बात करते हैं लेकिन जैन धर्म में इसका अलग ही महत्त्व है. जैन धर्म दो शाखाओं में बंटा हुआ है.
- श्वेताम्बर– जो सफेद वस्त्र धारण करते हैं.
- दिगम्बर– जो नग्न अवस्था में रहते हैं.
अहिंसा के बाद जैन धर्म में सबसे ज्यादा महत्त्व का विषय है, अपरिग्रह.
क्या है अपरिग्रह-
अपरिग्रह का शाब्दिक अर्थ होता है, किसी भी वस्तु का संग्रहण न करना.
इसकी विस्तृत व्याख्या में सामने आता है कि इस गुण वाला मनुष्य किसी भी वस्तु, स्थान, जीव पर किसी भी तरह का अधिकार नहीं मानता. चीजों पर अधिकार पाने की आदत को छोड़ देना ही अपरिग्रहता कहलाता है.
दिगम्बर की नग्नता बहुआयामी है-
दिगम्बर मुनि की नग्नता केवल वस्त्र से ही नहीं होती है. उस नग्नता के साथ त्याग, तपस्या और संयम का भाव छुपा होता है. जिस मनुष्य का अपनी इंद्रियों पर संयम हो उसे अपने आप को ढ़कने की ज़रूरत नहीं पड़ती.
दिगम्बर मुनियों को निर्ग्रन्थ भी कहा जाता है. निर्ग्रन्थ उसे कहते हैं जिसने सब कुछ त्याग दिया हो.
आठों दिशाएं ही होती हैं वस्त्र
दिगम्बर का मतलब ही होता है, जिसने सभी दिशाओं को अपना वस्त्र बना लिया हो. दिशाएं जिसका वस्त्र हों, उसे और किसी वस्त्र की ज़रूरत नहीं पड़ती.
मन का विकार रहित होना है ज़रुरी-
जिस तरह बचपन में हम सभी नग्न अवस्था में घूमते-फिरते रहते हैं फिर भी उसे सामान्य माना जाता है क्योंकि बच्चों का मन बेकार की भावनाओं और विकारों से मुक्त होता है. उसी तरह दिगम्बर का मन भी बच्चों की तरह निश्चल और साफ़ होता है.
सन्यास की असली प्रकृति हैं नग्नता-
देखा जाए तो सन्यासी का मतलब होता है, जिसने सभी भावनाओं को अपने मन से निकाल दिया हो. प्रेम, द्वेष, लोभ, क्रोध, तृष्णा आदि सभी भावनाओं से मुक्त होना सन्यासी का धर्म होता है. ऐसे में निर्वस्त्र होना, सन्यास का सबसे अहम पहलू बन जाता है. हम सभी समाज, शर्म, धूप, हवा, ठंड से बचने के लिए वस्त्र धारण करते हैं. इन सभी बातों में शरीर के लोभ और शर्म का भाव छिपा होता है. जिसने सन्यास लेकर भी इन भावों को नहीं त्यागा वो सार्थक रूप से सन्यास की कसौटी पर खरा उतरे यह संशय का विषय है. असल मायनों में सन्यासी होना, जग से परे हो जाना है.
एक दिगम्बर नग्न होकर सच्चे अर्थों में समाज के सामाजिक दायरों से परे हो जाता है.
दिगम्बर बनना है काफी मुश्किल-
एक दिगम्बर मुनि को अंतरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित होना पड़ता है.
इन दोनों के अंदर साधक को क्रोध, मान-मर्यादा, अविद्या, लोभ, बुरे संस्कार, धन, स्त्री, संतान, सम्पत्ति आदि सभी का त्याग करना होता है. साथ ही आने-जाने में उन्हें नंगे पांव ही सफर करना होता है. पूरे दिन में मुनि केवल एक समय भोजन करते हैं.
दुनिया में अनेक पंथ, धर्म, सम्प्रदाय के धार्मिक गुरु, ग्रन्थ और मानने वाले हैं. असीम शांति और आनन्द को पाने के लिए सबने अपने-अपने रास्ते चुने हैं. माना जाता है, आनंद प्राप्ति का मार्ग कठोर तप और साधना से होकर गुजरता है. जैन मुनि भी उस असीम आनंद और शांति के भाव की तलाश में इस कठोर जीवन को चुनते हैं.