एक शायर कहता है कि शहर तो वही पुराना लगता है, पर ना जाने क्यों इसका अंदाज़ बदला-बदला रहता है,
दिखते नहीं अब यहाँ गली में वो बच्चे, जो बचपन पल में याद दिला देते थे.
यहाँ कितनी आसानी से बचपन का दर्द लेखक ने लिख दिया है. वैसे ये बात तो सच है कि अब हमें कहाँ नज़र आते हैं वो 90 के परंपरागत खेल, जिन्हें एक पल में देखते ही, दिल करता था कि काश हम भी आज बच्चे होते. आजकल तो खेल भी कंप्यूटर में आ गये हैं. हम यहाँ बात कर रहे हैं, उन खेलों की जो भारत के परम्परागत खेल हैं, जिन्हें अगर आपने नहीं खेला, तो आपने कुछ नहीं खेला. याद करो, गुल्ली-डंडा, कंचा, लट्टू और सेवेन स्टोंस.
चलिए आपको लेकर चलते हैं हम अब उस दुनिया में जिसे आप काफी पीछे छोड़ आये हैं.
कंचा
कंचा उस दौर का सबसे परम्परागत खेल हुआ करता था. रोज गली में बच्चे कंचो को लेकर उस वक़्त में लड़ते हुए, कितनी आसानी से मिल जाते होंगे. इस खेल में, कुछ मार्बल्स की गोलियां बच्चों पर होती थीं. एक गोली से दूसरी गोली को निशाना लगाना होता था, और निशाना लग गया तो वह गोली आपकी हो जाती थी. कभी पूरे उत्तर भारत में खेले जाने वाले इस खेल का आज अंत हो गया है. आज ये केवल उत्तर भारत के कुछ ही इलाकों में रह गया है.
पोसंपा
याद कीजिये, स्कूल में जाते ही बैग को रखते थे क्लास में और भागते थे पोसंपा खेलने. इसमें दो बच्चे अपने हाथों को जोड़कर एक चैन बना लेते थे और इसमें से अन्य साथियों को गुजरना पड़ता था. यहाँ एक गीत गाया जाता था, पोसंपा भई पोसंपा, लाल किले में क्या हुआ, सौ रूपए की घड़ी चुराई, अब तो जेल में जाना पड़ेगा, जेल की रोटी खानी पडेगी और तभी इस चैन को बंद कर दिया जाता था, यदि बच्चा इसी में रह गया और गाना खत्म हो गया, तो उसे आउट माना जाता था.
लट्टू
इस खेल में, लकड़ी का एक गोला होता था, जिसके अंत में, एक लोहे की कील होती थी इसे कहा जाता था लट्टू. इसके चारों ओर एक सुतली को लपेटकर, उसे ज़मीन पर चलाना होता था. ये खेल कई तरह से खेला जाता था, जैसे दूसरे से तेज़ चलाना और दूसरे के लट्टू से, इसे चलाकर टक्कर लगवाना. आज ये खेल तो पूरी तरह से ही जैसे खत्म हो चुका है.
पीठो या सेवेन स्टोंस
गर्मी की वो दोपहरी, जब नींद नही आती थी तो निकल लेता था, गली के बच्चों एक झुंड सेवेन स्टोंस को खेलने. यहाँ एक बाल से सात पत्थरों को गिराना होता था. ये पत्थर एक के ऊपर एक रखे होते थे और कुछ दूरी से इनको निशाना लगाना होता था, निशाना लगते ही पत्थर गिरते थे और इनको फिर से उसी क्रम में रखना होता था, एक के ऊपर एक. यदि इनको रखते वक़्त बाल आपकी टीम के किसी खिलाड़ी या आपके लग गयी, तो वह आउट हो जाता था.
गुल्ली डंडा
पूरे हिंदी भाषी इलाकों में ये खेल सबसे ऊपर रहता था. वैसे तो कुछ इलाकों ये खेल खेला जा रहा है, पर इसको आज, कहीं ना कहीं दरकिनार कर दिया गया है. इसे बेलनाकार लकड़ी से खेला जाता है जिसकी लंबाई बेसबॉल या क्रिकेट के बल्ले के बराबर होती है और इसी की तरह की छोटी बेलनाकार लकड़ी को गिल्ली कहते हैं . एक खिलाड़ी गिल्ली को, लकड़ी से मारता है, और दूसरे खिलाड़ी इसको कैच करने की कोशिश करते हैं. कैच हो जाए तो खिलाड़ी आउट, वरना गुल्ली जहाँ गिरती थी, वहीं से इसको लकड़ी में मारना होता है.
इन खेलों के साथ एक बुरी बात ये हुई कि इनको ‘बुरे खेल’ कहा गया. इनको खेलने वाले बच्चों को, इनको खेलने से रोक दिया गया. जैसे-जैसे हम 21वीं सदी में प्रवेश कर रहे थे, ये खेल अपना दम तोड़ रहे थे और आज ये लगभग हमारे बचपन से गायब ही हो चुके हैं.