भारत

भारत और इंडिया में गहराता फर्क !

सामाजिक परिवर्तन – अनेक राजनेताओं के साथ-साथ कुछ धर्म गुरुओं ने भी महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के लिए स्त्री जाति को ही ज़िम्मेदार ठहराया.

वे आए दिन इसके लिए पश्चिमी सभ्यता को भी कठघरे में रखते रहते हैं. वहीं, यूरोप व अमेरिका का समाज तो नहीं कोसता कि उनके लोग भारतीय सभ्यता से बिगड़ रहे हैं. जबकि आज बड़ी संख्या में हमारे लोग वहां रहते हैं.

हमारी सभ्यता का आधार जातीय व्यवस्था है और इस व्यवस्था के शिकार जितने दलित, आदिवासी और पिछड़ें हैं, उतनी ही महिलाएं भी. हमारे धर्मग्रंथों में भी महिलाओं से संबंधित कई ऐसे उदाहरण हैं जो उनके प्रति शासन और समाज के अनुचित दृष्टिकोण को उजागर करते नज़र आते हैं. आज भी हमारे समाज में महिलाओं की वैसी ही स्थिति है. जब हमारी यही सभ्यता है तो महिलाएं फिर क्यों न पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित हों? जब वहां महिलाओं के लिए आज़ादी, सम्मान और आत्मनिर्भरता भारत जैसे मुल्क से ज़्यादा है. आज ऐसी सड़ी-गली परंपराओं व मान्यताओं को दफ़न करने का समय है जिनसे महिलाएं कमतर आंकी जाती हैं. अतीत में पश्चिमी देशों में भी महिलाओं के साथ भेदभाव होते रहे हैं लेकिन उन्होंने सबक लेकर अपने समाज में तेज़ी से बदलाव किया.

अगर ग्रीक सभ्यता के विकास पर एक निगाह डाली जाए तो बहुत कुछ मालूम पड़ता है. जैसे सुकरात के दर्शन को उनके शिष्य प्लूटो ने उतना ही माना जितना उनको मानव जाति के हित में तर्कसंगत लगा. इसी तरह प्लूटो के सिद्धांतों व दर्शन से प्रभावित होते हुए भी अरस्तु ने उनकी वही बातें मानी जो उन्हें तर्कसंगत लगीं. यानी ऐसे ही सभ्यता को आगे बढ़ाने का कार्य चलता रहा. इस तरह यथास्थितिवाद की पकड़ से समाज मुक्त होता गया. वहीं, हमारे यहां स्थिति एकदम विपरीत है. यहां पुरानी परंपराओं को ही सर्वोच्च माना जाता है. बस यहीं हम पश्चिमी सभ्यता के सामने व्यावहारिकता में पीछे रह जाते हैं. आज जब महिलाएं संविधान प्रदत्त अधिकारों के अनुसार जीना चाहती हैं तो उन पर पश्चिम की सभ्यता से प्रभावित होने का आरोप लगाया जाता है. अब ज़ाहिर सी बात है जब वे समानता और आत्मसम्मान के प्रति जागरूक हो गईं हैं तो उनके रहन-सहन में बदलाव तो आएगा ही. ऐसे में उनका पश्चिमी सभ्यता के तमाम मूल्यों से मेल खाना लाज़िमी है.

हमें बदलाव से रोका नहीं जा सकता. जो सामाजिक परिवर्तन वहां हुए अगर उन्हें हम अपने परिवेश के अनुसार ढाल लेते तो आज हमें पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित होने की ज़रूरत ही न होती. फिर हो सकता था कि दूसरी सभ्यताओं को हम कुछ दे सकते. वहीं, हम आज भी जातिवादी परंपरा तोड़ने और पुरुषवादी सोच को ख़त्म करने का प्रयास नहीं कर पाए. ये कार्य समाज के स्वयंभू ठेकेदारों पर छोड़ दिया गया. भला, वे क्यों सामाजिक परिवर्तन करते? इसमें तो सरकार का हस्तक्षेप होना चाहिए था लेकिन वोट-बैंक ख़राब न हो इसलिए राजनेताओं ने सामाजिक परिवर्तन के लिए आंदोलन ही नहीं किया.

संचार की दिशा में बड़ी क्रांति आई जिसकी वजह से स्वतः ही महिलाओं ने अपनी तरह से बराबरी एवं रहन-सहन के तरीके अपनाए.

उच्च शिक्षा में भी अपनी भागीदारी दिखाई. वे घर से बाहर निकलीं और नौकरी भी की. राजनीतिक नेतृत्व भी इनके हाथ में आया. ऊपरी तौर पर दिखने लगा कि अब ये पुरुष के समान पहुंच रहीं हैं. लेकिन समाज की सोच के स्तर पर बदलाव बहुत कम ही हुआ. ये कहना गलत है कि गड़बड़ी इंडिया में हो रही है भारत में नहीं.

जोधपुर में दो गाँव ऐसे हैं जहाँ 100 वर्षों के बाद बारात आई क्योंकि वहां लड़कियां पैदा होकर ही मार दी जाती थीं. आज इंडिया की महिलाओं को कई गुना ज़्यादा मान-सम्मान, भागीदारी, बराबरी मिल चुकी है जबकि भारत की महिलाएं आज भी संघर्षरत हैं.

Devansh Tripathi

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