“तू हिन्दू बनेगा या मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा“
याद है आप को मनमोहन कृष्ण पर फिल्माया गया बी आर चोपड़ा की फिल्म “धुल का फूल” का यह गीत जो 1960 में रिलीज़ हुयी थी?
बहुत ही खूबसूरत फिल्म थी और फिल्म के संगीत ने सब के दिल को छू लिए था!
ऐसी ही और भी कई फिल्में हैं जहाँ हिन्दू और मुसलमान किरदार एक दुसरे से बेइन्तहाँ मोहब्बत करते दिखाए गए हैं! जहाँ धर्म का भेद कभी सर चढ़ कर बोला ही नहीं! हिन्दू और मुसलमान किरदार इस कदर फिल्म की कहानी में पिरोये जाते थे, कि ये एहसास ही नहीं होता था कि दोनों किरदार अलग अलग धर्म से आते हैं!
हिंदी फिल्म उद्योग एक ऐसे माध्यम के रूप में उभर कर आया जो सांप्रदायिक सोच को एक नयी दिशा प्रदान कर सकता है! कितनी ही फिल्मों में हिन्दू मुसलमान को दोस्त या बिछड़े हुए भाइयों के रूप में दिखाया गया है जो हाथ में हाथ डाल कर गीत गाते और साथ साथ ज़िन्दगी बिताते देखे गए हैं!
मनमोहन देसाई की “अमर अकबर अन्थोनी“ तो आप को याद ही होगी?
और तो और हिंदी फिल्म उद्योग ने ख़ुशी ख़ुशी मुसलमान भाइयों को निर्माता, निर्देशक, गीतकार और संगीतकार और पार्शव गायक के रूप में स्वीकारा भी और सर आँखों पर भी बिठाया! मोहम्मद रफ़ी, साहिर लुधियानवी, जावेद अख्तर जैसे और भी कई नाम हैं जो हमारे हिंदी सिनेमा के चमकते अमर सितारे हैं!
एक इंटरव्यू के दौरान सुनील दत्त, जो कि पाकिस्तान के रिफ्यूजी के रूप में हिन्दुस्तान आये थे, उन्होंने कहा कि “दिल और जिस्म पर हज़ारों ज़ख्म लिए जब हम हिन्दुस्तान आये थे, तब भी दिलों में कोई बैर नहीं था! तब भी तालाब थी हिन्दू और मुसलमान को एक कर देने कि अपनी फिल्मों के ज़रिये!”
तो कुछ ऐसी सोच और ऐसी चाहत रखते थे हमारी फ़िल्मी दुनिया के लोग, और आज भी रखते हैं! आज भी कितने ही हिन्दू और मुसलमान सितारे फ़िल्मी आसमान को जगमगाते हैं और एक साथ एक जुट हो कर एक ही फिल्म में काम भी करते हैं!
हाल ही की हिट फिल्म “ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा“, जो जीने का सही मतलब और मक़सद बड़े ही प्रभावी ढंग से दर्शाती है, उसी के किरदार जो कि आपस में गहरे दोस्त हैं, अर्जुन (ह्रितिक रोशन), इमरान (फरहान अख्तर) और कबीर (अभय देओल), उनके आपस के समीकरण में हिन्दू मुसलमान का फर्क कहीं नज़र ही नहीं आता! वो सिर्फ दोस्त हैं और आम दोस्तों कि तरह छोटी छोटी बातों पर लड़ते झगड़ते भी हैं!
तो फिर मेरी समझ में यह नहीं आता कि कौन लोग हैं जो इस तरह का सांप्रदायिक ज़हर फैला रहे हैं? क्या वो हम तुम जैसे नहीं हैं? क्या वो हिंदी सिनेमा नहीं देखते या समझते नहीं हैं? क्या वो हमारी तरह आम सोच नहीं रखते? या फिर कोई और ताक़तें हैं जो हिन्दू और मुसलमान को एक होने नहीं देती?
आज हिन्दू और मुसलमान एक दुसरे के खून के प्यासे हैं, एक दूसरे को देखते ही गाली गलौज पर उतर आते हैं, क्या इसे बदला जा सकता है?
क्या हमारा हिंदी सिनेमा उद्योग एक बार फिर से कमर कस के ऐसी फिल्में बना सकता है जो साम्प्रदायिकता को बढ़ावा न दे कर, दोनों धर्मों को एक करने का बीड़ा उठाएं?
अगर ऐसा हो सकता है तो सोच में बदलाव कि उम्मीद अभी बाकी है, क्योंकि फिल्में हमारे सर चढ़ कर बोलती हैं, बेशक!
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