इतिहास

1955 तक हिंदू पुरुष जितने चाहे कर सकते थे विवाह

हिंदू पुरुष – आज पूरे देश में तीन तलाक और बुर्के को लेकर बातें होती हैं।

जिसके साथ मुस्लिमों के बहुविवाह के बारे में भी बातें हो जाती हैं। लेकिन क्या आपको मालूम है कि 1955 तक हिंदू पुरुष जितने चाहे विवाह कर सकते थे। उस समय तक उन पर एक शादी करने की कोई पाबंदी नहीं थी जिसके कारण हिंदुओं में भी की सारे विवाह पहले होते थे।

इस पर अभी बात क्यों हो रही है?

क्यों कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने व्याभिचार के कानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया है। जिसके बाद कुछ नैकितकता की दुहाई दे रहे हैं तो कुछ इसका साथ दे रहे हैं। जबकि कोई यह सोच नहीं रहा है कि इससे महिलाओं को कितना फायदा होता है। आज हम इस पर ही बात करेंगे।

किया असंवैघानिक घोषित

विवाहेतर संबंधों से जुड़े दंडात्मक कानूनों को अब सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया है। हालांकि भारत में विवाहेतर संबंधों को आपारधिक कानून की श्रेणी में रखने संबंधी पुराकालीन कानून के उद्भव और विकास की एक लंबी श्रृंखला रही है। सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय संविधान पीठ के ऐतिहासिक फैसले में न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा कि इस प्रावधान का असल रुप तब सामने आता है जब पति की सहमति या सहयोग से यदि कोई अन्य व्यक्ति विवाहित महिला के साथ यौन संबंध बनाता है तो वह विवाहेत्तर संबंध नहीं है। पीठ में शामिल न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन और न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा ने अपने-अपने फैसले में इस बात का जिक्र किया है कि आखिरकार विवाहेत्तर संबंध आखिर में कैसे अपराध में बदल गए।

1955 तक हिंदु कितनी भी महिलाओं से कर सकते थे शादी

इस विवाद का फैसला सुनाने के लिए सभी न्यायधीशों को 1860 के कानून में जाना पड़ा। 1860 के कानून के तहत भारतीय दंड संहिता की धारा 497 थी जिसके तहत महिलाओं पर व्याभिचारी का कानून लगता था। इस कानून की ही व्याख्या करते हुए न्यायाधीशों ने भारतीय दंड संहिता की धारा 497 में शामिल इस कानून को निरस्त करने का फैसला दिया। न्यायाधीश नरीमन ने कहा है कि 1955 तक हिंदू पुरुष जितनी महिलाओं से चाहे विवाह कर सकते थे।

1860 तक नहीं था तलाक का कानून

आपको जानकर हैरानी होगी कि 1860 तक तलाक का कोई व्यवधान हिंदु समाज में नहीं था। उन्होंने कहा कि 1860 में जब दंड संहिता लागू हुई उस वक्त देश की बहुसंख्यक हिंदुओं के लिए तलाक का कोई कानून नहीं था। आप इसे ऐसे समझ सकते हैं कि हिंदू कानून में तलाक का मतलब भी किसी को नहीं मालूम था।

शादी था संस्कार का हिस्सा

हिंदुओं के तलाक से अनजान होने का कारण शादी संस्कार था। पहले शादी को संस्कार का हिस्सा समझा जाता था। जिस तरह से बच्चों को बड़ों की आज्ञा का पालन करना संस्कार है उसी तरह से शादी का पालन करना हर महिला और पुरुष का संस्कार था। ऐसे में शादी तोड़ना एक पाप की तरह समझा जाता था।

हिंदु पुरुष मना सकते थे किसी भी महिला से यौन संबंध

न्यायमूर्ति नरीमन ने अपने फैसले में कहा कि ऐसी स्थिति में यह समझ पाना बहुत मुश्किल नहीं है कि एक विवाहित पुरुष द्वारा गैर महिला से यौन संबंध बनाना कानून औऱ समाज के खिलाफ नहीं था। क्योंकि उनके पास शादी करने का एक विकल्प हमेशा रहता था। जब भी समाज में पुरुष का किसी महिला से नाम जुड़ता था यह माना जाता था कि वह उससे शादी कर लेगा।

उस समय तलाक के संबंध में कोई कानून ही नहीं था, ऐसे में विवाहेतर संबंध को तलाक का कारण माने जाने के बारे में कभी सोचा नहीं गया। क्योंकि विवाहित महिला की तरफ नजर उठा कर कोई देखता नहीं था और विवाहित पुरुष कितनी भी महिलाओं से शादी कर सकते थे।

महिला न्यायाधीश ने भी इस संस्कार को माना एकतरफा

पीठ में शामिल इकलौती महिला न्यायाधीश न्यायमूर्ति मल्होत्रा ने भी अपने फैसले में कहा कि भारत में मौजूद शादी संस्कार एकतरफा है। भारत में मौजूद भारतीय-ब्राह्मण परंपरा के तहत महिलाओं के सतित्व को उनका सबसे बड़ा धन माना जाता था। जबकि पुरुषों के लिए ऐसा कुछ नहीं था। इस तरह का सांस्कारिक आधारित भेदभाव खत्म होना चाहिए।

हिंदू पुरुष – इसी को ध्यान में रखते हुए ही व्याभिचार के कानून को खत्म किया गया। उम्मीद है कि इससे शादी जैसे रिश्ते में बराबरी आएगी और कोई पक्ष एक-दूसरे की कमजोरी का फायदा नहीं उठाएगा।

Tripti Verma

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