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क्या है चाँद? बस एक आधी खायी हुयी रोटी!

hindi poetry on moon

शायर की शायरी में देखा जो चाँद, वो चाँद ज़रूर कोई किस्सा होगा

मैंने जो देखा, मैंने जो माँगा, आधी खायी रोटी सा मेरा हिस्सा होगा

अपने कहे इस नाचीज़ शेर से शुरुआत कर रही हूँ चाँद की रोटी की इस कहानी की!

दुनिया के सारे शायर जो शायरी के मतलब को समझ पाये, या शायरी को अपनी अभिव्यक्ति बना पाये, उन्होंने ने कभी न कभी, कहीं न कहीं, चाँद को तराशा है! चाँद को अपनी शायरी, अपनी कविाताओं या ग़ज़लों में ढाला है!

कभी ख़ूबसूरती के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया, और कभी रौशनी या चांदनी की अलामत के तौर पर!

मगर कुछ शायर सीप का मोती निकाल कर लाये! उन्होंने चाँद को रोटी कह दिया!

रोटी!

हर इंसान रोटी की ज़बान समझता है! चाहे फुटपाथ पर सोने वाला भिखारी हो या मर्सिडीज़ में घूमता साहबज़ादा…

रोटी सब को समझ आती है, इश्क़ मोहब्बत समझ आये न आये! और फिर रोटी का ही तो खेल है न सारा? किसी को आधी खायी सूखी रोटी में मिल जाता है जन्नत का स्वाद, कोई भाग रहा है सोने की रोटी खाने की अंधी कोशिश में!

गुलज़ार साब ने बड़े ही सटीक शेर में कह डाली यही बात! के चाँद में महबूब अब नहीं दिखता… कौन दिखता है?

माँ ने दुआएँ दी थी एक चाँद सी दुल्हन की

आज फूटपाथ पर लेटे हुए, ये चाँद मुझे रोटी नज़र आता है!

गुलज़ार

बहुत थोड़े और बहुत ही आसान अशआरों में एक गहरी बात कह जाने का हुनर रखने वाले गुलज़ार साब ने चाँद को और भी कई बार अपनी लेखनी में उतारा है! हर बार एक नयी खिड़की के ज़रिये! मगर रोटी वाले चाँद में ज़ौक़ सब से ज़्यादा है, यक़ीनन!

इसी चाँद की रोटी का एक और निवाला परोसा सिनेमा और थिएटर जगत के बेहद ही उम्दा कलाकार पियूष मिश्रा ने, बड़े ही उस्तुवार तरीके से, अपनी फिल्म गैंग्स ऑफ़ वासेपुर के ज़रिये!

इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियां

इक बगल में नींद होगी, इक बगल में लोरियां

हम चाँद पे रोटी की चादर डालकर सो जायेंगे

और नींद से कह देंगे लोरी कल सुनाने आयेंगे

 

इक बगल में खनखनाती सीपियाँ हो जाएँगी

इक बगल में कुछ रुलाती सिसकियाँ हो जाएँगी

हम सीपियों में भरके सारे तारे छूके आयेंगे

और सिसकियों को गुदगुदी कर कर के यूँ बहलाएँगे

 

अब न तेरी सिसकियों पे कोई रोने आएगा

गम न कर जो आएगा वो फिर कभी न जायेगा

याद रख पर कोई अनहोनी नहीं तू लाएगी

लाएगी तो फिर कहानी और कुछ हो जाएगी

 

होनी और अनहोनी की परवाह किसे है मेरी जां

हद से ज्यादा ये ही होगा की यहीं मर जायेंगे

हम मौत को सपना बता कर उठ खड़े होंगे यहीं

और होनी को ठेंगा दिखाकर खिलखिलाते जायेंगे

इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियां

आने वाले कल के सुनहरे सपने, मन में खुशियों की कभी न ख़त्म होने वाली उम्मीद, और एक नयी कहानी का इंतज़ार कहती ये नज़्म, मेरी नज़र में आज के हालात को बखूबी कागज़ पर उतारती है! पियूष मिश्रा की बेहतरीन अदायगी ने जैसे इस को बेजोड़ ही बना डाला! मौक़ा मिले तो सुनियेगा ज़रूर!

दर्द की कहानी को छुपा कर एक नयी सुबह लिख लेने की कोशिश और मौत में से उठ कर एक नयी ज़िन्दगी जी लेने का हौसला! चाँद जब रोटी हुआ तो कई और कहानियां बनेंगी ज़रूर! कई और शायर आएँगे चाँद के निवाले खिलाने! कई और नग्मे छिड़ेंगे जहाँ चाँद कई और रूप इख्तियार करेगा!

और आखिर में यही कहना चाहूँगी कि –

चाँद को रोटी कर या किसी हसीं का नाम दे

चाँद कर लाएगा पूरा, जो भी उसे तू काम दे

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