हिंदी सिनेमा – “बेटा तुमसे हो ना पायेगा, तुम्हारे लक्षण बिल्कुल ठीक नहीं लग रहे हैं, तुमसे ना हो पायेगा.”
इसी हालत में कभी हमारा पूरा हिंदी सिनेमा जी रहा था. ये कुछ खास कर ही नहीं पा रहा था. या ये कहें की इससे कुछ हो नहीं पा रहा था.
कहानियां सिर्फ भाइयों के खो जाने से शुरू होतीं थी और मिल जाने पर खत्म हो जाती थीं. पर अब धीरे-धीरे हालात बदल रहें हैं. कभी जिन फिल्मों के लिए पैसा नहीं मिलता था, आज उस तरह की फ़िल्में बन रहीं हैं और अपनी मौजूदगी भी दर्ज़ करा रही हैं. वहीं आज, मुख्य धारा के साथ, एक समानांतर सिनेमा भी खड़ा हो रहा है. नये डायरेक्टर्स आ रहे हैं. क्राउड फंडिंग से फ़िल्में बन रही हैं. नये फिल्मकारों के समूह ने तो कमाल कर दिया है।
आज समानांतर सिनेमा, समय की आवश्यकता ही नहीं बल्कि एक मौलिक जरूरत बन चुका है. वैसे इस ओर अब काम हो रहा है, अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धुलिया, विशाल भरद्वाज, ओनिर, वसन बाला और आनंद गाँधी जैसे विख्यात निर्देशक नया रास्ता बना रहे हैं,
‘आई ऍम’
हिंदी सिनेमा में आई ऍम, उन पहली फिल्मों में गिनी जाती है, जो क्राउड-फंडिंग से बनी है. साल 2011 में फिल्म ये आई और इस साल की सबसे कम बजट की फिल्म रही. इसने उस साल नेशनल फिल्म फेस्टिवल में 2 अवार्ड अपने नाम किये. फिल्म के निर्देशक ने 450 अलग-अलग देशों से, 80 लाख रुपयों का इंतजाम फिल्म के लिए किया था. फिल्म को दर्शकों का काफी बेहतरीन रेस्पोंस मिला था. यहाँ कहानी को चार अलग-अलग भागों में बाटकर पूरा बनाया गया था. जिसमें कश्मीर की समस्या भी थी, बाल शोषण, स्पर्म डोनेशन भी और पुरुष प्यार की भी मर्म कहानी थी.
शीप ऑफ़ थीसिस
हिंदी सिनेमा में साल 2013 में, एक और स्वतंत्र निर्देशक ने, अपनी कहानी को पर्दे पर उतारा. यह भी समानांतर सिनेमा के लिए मील का पत्थर साबित हुई. फिल्म पहचान, सुन्दरता, दर्द और मृत्यु पर कई उलझे हुए सवालों को सुलझाती है. शीप ऑफ़ थीसिस साल की बेहतरीन फिल्मों में रही और नेशनल फिल्म फेस्टिवल में अवार्ड जीतने में कामयाब रही.
पैडलर्स
वसन बाला की फिल्म पैडलर्स ने फेसबुक के जरिये, 1 करोड़ रूपए का जुगाड़ किया, जो फिल्म का आधा बजट है. फिल्म में एक 20 साल के बेसहारा लड़के की कहानी है, जो नशीली दवाओं के गंदे धंधे में चला जाता है. अभी तक फिल्म भारत में रिलीज़ नही हो पायी है, पर इसका इंतज़ार काफी किया जा रहा है.
नया पता
बिहार से काम की तलाश में प्रवास की समस्या बहुत आम है. पर उसके पीछे छुपे दर्द को, परदे पर उतारा पवन श्रीवास्तव ने. फिल्म को बनाया गया क्राउड फंडिंग से. बैंकिंग और टेलिकॉम की नौकरी करते हुए, इन्हें समझ आ गया कि यहाँ वक़्त लगाकर, इन्हें इनकी असली मंजिल नहीं मिल पायेगी. मुंबई से नौकरी छोड़कर आ गये, अपने बिहार और शुरू कर दी फिल्म की तैयारी.
हिंदी सिनेमा – इस तरह से अब हम देख सकते हैं, एक व्यवसायिक सिनेमा के साथ-साथ, एक सिनेमा व्यवसायिक फिल्मों के समानांतर चलने लगा है, जिसे हम ‘इंडी सिनेमा’ के जन्म के रूप में भी देख सकते हैं.
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